विषय
सूचि THE
BHAGAVAD-GITA Special Public Service or FREE Edition Buy this in Paperback with commentaries by Dr. Prasad for $7.99 and help us!! CHAPTER 1 धृतराष्ट्र
बोले--
हे संजय,
धर्मभूमि
कुरुक्षेत्र
मे एकत्र हुए युद्ध
के इच्छुक
मेरे और पाण्डु
के पुत्रों ने
क्या-क्या
किया ? (१,१) संजय
बोले -
पाण्डवों की
सेना की
व्यूह-रचना
देख्कर राजा
दुरोधन ने
द्रोणाचार्य
के पास जाकर
कहा । (१,२) हे
आचाय्र, आप्के
बुद्दिमान
शिष्य
धुष्टध्युम्न
द्वारा
व्यूहकार खडी
की गयी
पाण्डुपुत्रॊंकी
इस महान सेना
को देखिये । इस
सेना में महा
धनुर्धारी
योद्धा है , जो
युद्ध मे भीम
और अर्जुन के
समान है, जैसे
युयुधान,
विराट तथा
महारथी राजा
द्रुपद,
धृष्टकेतु,
चेकितान,
बलवान
काशीराज,
पुरुजित,
कुन्तिभोज और
द्रुपद के
पुत्रों, ये
सब महारथी है
। हे
द्विजोत्तम, हमारे
पक्ष में भी
जो वरिष्ठ
योद्धगण है, उन्को
भी आप जान
लीजिये, आपकी
जान्कारी के
लिये मै अपनी
सेन के नायकों
के नाम बताता
हूं (१, ७) एक
तो स्व्यं आप, भीष्म, कर्ण
और विजयी
कृपाचार्य
तथा
अश्वत्थामा , विकर्ण
और सोमदत्त का
पुत्र है.
मेरे लिये प्राण्त्याग
कर्ने के लिये
तैयार, अनेक
प्रकार के
शस्त्रों से
सुसज्जित तथा
युद्धमे कुशल
और भि अनेक
शूरवीर है (१,७-९) भीष्मपितामह
द्वारा
रक्षित हमारी
सेना अपरिमित
है, और
भीम द्वारा
रक्षित उन्की
सेना परिमित
है. विभिन्न
मोर्चों पर
अप्ने अप्ने
स्थान पर स्थित
रहते हुए आप
सब लोग
भीष्मपितामह
की सब ओर से
रक्षा करें
।(१,१०-११) उस समय
कौरवों में
वृद्ध, प्रतापी
भीष्मपितामह
ने दुर्योधन
के मन हर्ष
उत्पन्न करते
हुए उच्च स्वर
से गरज कर
शंखध्वनि की.
(१.१२) तत्पश्चात
शंख, नगाडे, डोल, शृंगी
आदि वाद्य एक
साथ हि बज उठे, जिनका
भयंकर नाद हुआ
(१,१३) इस्के
उपशान्त शेत
अश्वों से
युक्त भव्यरथ
मे बैठे हुये
श्रीक्रुष्ण और
पाडुपुत्र
अर्जुन अपने
अपने दिव्य
शंख बजाये
।(१.१४) भगवान
कृष्णने
पाञ्चजन्य, अर्जुन
ने देवदत्त
तथा भयंकर
कर्म
करनेवाले भीम
ने पौन्ड्र
नामक महाशङ्ख
बजाये. (१.१५) हे
राजन, कुंतीपुत्र
रज युधिष्ठिर
ने अनन्त विजय
नामक शङ्ख , नकुल
तथ सहदेव ने
क्रमशः सुघोष
और मणिपुष्पक
नामक शङ्ख
बजाये.
श्रेष्ठ
धनुषवाले
काशीराज, महारथि
शिखंडि, धृष्टध्युम्न, राजा
सात्यकि, राजा
विराट , अजेय
सात्यकि राजा
द्रुपद, द्रौपदी
के पुत्र और
महबाहु
अभिमन्यु ने
अलग अलग शंख
बजाये. (१.१५-१९) वह
भयंकर घोष
आकाश और
पृथ्वी पर
गूंजने लगा और
उस्ने आप्के
पुत्रों के
हृदय विदीर्ण
कर दिये. (१.१६) हे
राजन, इस
प्रकार जब
युद्ध
प्रारम्भ
होनेवाला ही
था कि कपिध्वज
अर्जुन ने
ध्रुतराष्ट्र
के पुत्रो को
स्थित देखकर
धनुश उठाकर
भगवान कृष्ण
से ये शब्द
कहे हे अच्युत, मेरे
रथ को दोनो
सेनाओं के
मध्य खडा
कीजिये, जिससे
मैं युद्ध की
इच्छा से खडे
उन लोगों का
निरीक्षण कर सकूं
जिन्के साथ
मुझे युद्ध
कर्ना है.
(१.२०-२२) दुर्बुद्धि
दुर्योधन का
युद्ध में
प्रिय चाहने
वाले जो राजा
लोग यहां
एकत्र है, उन
युद्ध करने
वालों को मैं
देखना चाहता
हूं (१.२३) संजय
बोले ---हे भारत, अर्जुन
के इस प्रकार
केहने पर
भगवान कृष्ण
ने उत्तम रथ के
दोनो सेनाओं
के सामने खडा
कर्के कहा-- हे
पार्थ यहं
एकत्र हुए इन
कौरवों को
देखो. (१.२४-२५) वहां
अर्जुन ने
अपने चाचाओं, पितामहों, आचार्यों, मामाओं
भाइयों, पुत्रों, पौत्रों
और मित्रों को
खडे हुए देखा
(१.२६) श्वशुरों, मित्रों
और सब बन्धुओं
को भी उन
दोनों सेनाओं मे
स्थित देखकर
कुन्तीपुत्र
अर्जुन का मन
करुणा से भर
गया और विषाद
युक्त होकर
उस्ने यह कहा हे
कृष्ण, युद्ध की
इच्छा से
उपस्थित इन
स्वजनॊं को
देखकर मेरे
अंग शिथिल हुए
जाते है, मुख
भी सूः रहा है
और मेरे सरीर
मे कम्पन तथा
रोमांच हो रहा
है. (१. २७-२९) मेरे
हाथ से
गाण्डीव धनुष
गिर रहा है , त्वचा
जल रही है.
मेरा मन
भ्रमित सा हो
रहाहै, तथा मैं
खडा रहने भी
असमर्थ हूं और
हे केशव मैं
शकुनॊं को भी
विपरीत ही देख
रहा हूं ।
युद्ध में
अपने स्वजनों
को मार कर कोई
कल्याण भी नहीं
देखता हूं
।(१.३०) हे
कृष्ण, मैं न
विजय चाहता
हूं. और
न राज्य तथा
न सुखों को ही
हे गोविन्दा, हमें
ऎसे राज्य से
अथवा भोगें से, और
जीनेसे भी
क्या लाभ है ? क्योंकि
वे सब लोग, जिन्के
लिये राज्य, भॊग
सुखकी इच्छा
है, धन
और जीवन्की
आषा त्यागकर
युद्ध के लिये
खडे हैं
(१.३२-३३) हे
मधुसूदन
कृष्ण, गुरुजन, ताऊवों, चाचावों, पुत्रों, पितमहों, मामाओं, श्वशुरों, पोतों, सालों
तथा अन्य
संबन्धियों
को, मुझपर
प्रहार करने
पर भी, मैं
मारना नहिं
चाहता. तीनों
लोक के राज्य
के लिये भी
मैं इन्हें
मारने नही
चाहता, फिर
पृथ्वी के
राज्य की तो
बात ही क्या
है । हे
मधुसूदन
कृष्ण, धृतराष्ट्र
के पुत्रों को
मारकर हमें
क्या प्रसन्नता
होगि?इन
आततायियों को
मारने से तो
हमें केवल
पापही लगेगा.
(१.३६) इसलिये
अपने
बान्धवों, धृतराष्ट्र
के पुत्रों को
मारना हमारे
लिये उपयुक्त
नहीं है, क्योंकि ,हे माधव, स्वजनों को
मारकर हम कैसे
सुखी होंगे? (१.३७) यद्यापि
लोभ से
भ्रष्टचित्त
हुए ये लोग
अपने कुल के
नाश से
उत्पन्न दोष
को और मित्रों
से विरोध
कर्ने में हुए
पाप को नहीं
देख रहें है. परन्तु ,हे
जनार्दन, कुल
के नाश से
उत्पन्न दोष
को जानने वाले
हम लूं को इस
पाप से निवृत्त
होने के लिये
क्यों नहिं
सोचना चाहिये? (१.३८) कुल
के नाश से कुल
के सनातन धर्म
नष्ट हो जाते हैं, धर्म के
नष्ट होने पर
सारे कुल को
पाप दबा लेता
है (१.४०) हे
कृष्ण पाप के
बढ्जाने से
कुल की
स्त्रीयां दूषित
हो जाती हैं
और हे वार्णेय, स्त्रीयों
के दूषित होने
पर वर्णसंकर
पैदा होता है
(१.४१) वर्ण
संकर
कुलघातियों
को और सारे
कुल को नरक में
ले जाता है, क्योंकि
( वर्णसंकर
द्वारा)
श्राद्ध और
तर्पण न मिलने
से पितर भी
अप्ने स्थान
से नीचे गिर जाते
हैं (१.४२) इन
वर्णसंकर
पैदा कर्ने
वाले दोषों से
कुलघातियों
के सनातन कुलधर्म
और जातिधर्म
नष्ट हो जात्र
हैं (१.४३) यह
बडे शोक की
बात है कि हम
लोग बडा भारी
पाप करने का
निश्चय कर
र्बैठे है तथा
राज्य और सुख
के लोभ से
अप्ने स्वजनो
का नाश करने
तैयार हैं (१.४५) मेरे
लिये अधिक
कल्याण्कारी
होग यदि मुझ
शस्त्ररहित
और सामना न
करनेवाले को
ये
शस्त्रधारि
कौरव रण में
मार डालें
(१.४६) संजय
बोले-ऎसा कहकर
शोकाकुल मन
वाला अर्जुन रणभूमि
में बाणसहित
धनुष का त्याग
करके रथ के पीछले
भाग में बैठ
गया. (१.४७) CHAPTER 2 संजय
बोले – इअ तरह
करुणा से
व्याप्त आसूं
भरे, व्याकुल
नेत्रोंवाले, शोकयुक्त
अर्जुन से
भगवान
श्रीकृष्ण ने
कहा. (२.१) श्रीभगवान
बोले – अर्जुन, इस
विषम अवसर पर
तुम्हें यह
कायतरा कैसे
हुई? यह
श्रेष्ठ
मनुष्यों के
आचरण के
विपरीत है । तथा
यह न तो
स्वर्ग
प्राप्ति का
साधन है और न
कीर्ति
देनेवाला ही
है .(२.२) इसलिये
हे अर्जुन, तुम
कारर मत बनो.
यह तुम्हें
शोभा नहिं
देता. हे शत्रुओं
को मारनेवाले
अर्जुन. तुम
अपने मन की इस
दुर्बलता को
त्याग्कर
युद्ध करो (२.३) अर्जुन
बोले – हे
मधुसूदन, मैं
इस रणभूमि में
भीष्म और द्रोण
विरुद्ध
बाणों से कैसे
युद्ध करूं?
हे अरिसूदन,
वे दोनों ही
पूजनीय हैं
(२.४) इन
महानुभाव
गुरुजनों को
मारने से
अच्छा इस लोक
में भिक्षा का
अन्न खाना है,
क्योंकि
गुरुजनों को
मारकर तो इस
लोक में उन्के
रक्त से सने हुए
अर्थ और
कामरूपी भोग
कोही तो
भोगूंगा (२.०५) और हम
यह भी नहीं
जानते कि हम
लोगोंके लिये
(युद्ध करना
या न करना, इन
दोनों में)
कौनसा अच्छा है,
अथवा यह भी
नहीं जानते कि
हम जीतेंगे या
वे जीतेंगे.
जिन्हें
मारकर हम
जीनाभी नहीं
चाहते, वे ही
धृतराष्ट्र
के पुत्र हमारे
सामने खडे
हैं. (२.६) इस्लिये
करुण्पूर्ण
और कर्तव्य पथ
से भ्रमित,
मैं, आप्से
पूछता हूं कि
मेरे लिये जो
निश्चयही
कल्याणकारी
हो उसे आप
कृपया कहिए.
मैं आपका
शिष्य हूं,
शरणमें आये
मुझको आप
शिक्षा दीजिए
(२.७) पृथवी
पर निष्कण्टक
समृद्ध राज्य
तथा देवताओं
का स्वामित्व
प्राप्त्कर
भी मैं ऎसा
कुछ देखता हुं
जिससे हमारे
इन्द्रियों
को
सुखानेवाला
शोक दूर हो
सकें (२.८) संजय
बोले – हे राजन,
निद्रा के
जीतनेवाले,
अर्जुन, अन्त्रयामी
श्रीकृष्ण
भगवान से “मैं
युद्ध नहीं करूंगा”
कहकर चुप
होगया. (२.९) हे
भरत्वंशी
(धृतराष्ट्र )
दोनों सेनओं
के बीच में उस
शोकयुक्त
अर्जुन को अन्तर्यामी
श्रीकृष्ण
हंसते हुए से
ये वचन बोले.(२.१०) श्रीभगवान
बोले- हे
अर्जुन, तुम
ज्ञानियों की तरह
बातें करते
हो, लेकिन
जिन्के लिए
शोक नहीं करना
चाहिए, उनके
लिए शोक करते
हो, ज्ञानी
मृत या जीवित
के लिए भी शोक
नहीं करते.
(२.११) ऎसा
नहींहै कि मैं
किसी समय नहीं
था, अथवा तुम नहीं
थे, या ये राजा
लोग नहीं थे,
और न ऎसा ही है
कि इससे आगे
हम सब नहीं
रहेंगे (२.१२) **जैसे
इसी जीवन में
जीवात्मा
बाल,युवा और
वृद्ध शरीर
प्राप्त
कर्ता है,
वैसे ही
जीवात्मा मृत्यु
के बाद दूसरा
शरीर प्राप्त
करता है.
इस्लिए धीर
मनुष्य को
मृत्यु से
घबराना नहीं
चाहिए (२.१३) हे
अर्जुन,
इन्द्रियॊंके
विष्यों से
संयॊग के कारण
होने वाले
सर्दी-गर्मी
और सुख-दुःख
क्षणभंगुर और
अनित्य हैं
इसलिए हे
अर्जुन, तुम
उसको सहन करो
(२.१४) हे
पुरुष्श्रेष्ठ,
दुःख और सुख
में समान भाव
से रेहनेवाले
जिस धीर
मनुष्य को इन्द्रियों
के विषय
व्याकुल नहीं
कर पाते, वह
मोक्ष का
अधिकारी होता
है (२.१५) असत
वस्तु का
अस्तित्व
नहीं होता और
सत का अस्तित्व
होताहै.
तत्वदर्शी
मनुष्य (असत
और सत ) दोनों
को तत्व से
जानते हैं
(२.१६) उस
अविनाशी तत्व,
आत्मा को जानो
जिससे यह जग
सारा जगत
व्याप्त है,
इस अविनाशी का
नाश करने में
कोई भी समर्थ
नहीं है (२.१७) इस्
अविनाशी, असीम
और नित्य
जीवात्मा के
ये सब शरीर
नाशवान कहे
गये हैं,
इसलिये हे
भरतवंशी अर्जुन,
तुम युद्ध
करो. (२.१८) **जो इस्
आत्मा को
मारनेवाला या
मरनेवाला
मानते हैं, वे
दोनों नासमझ्
हैं, क्योंकि
आत्मा न किसी
को मारता है
और् न किसी के
द्वारा मारा
जा सकता
है.(२.१९) **आत्मा
कभी न जन्म
लेता है और न
मरता है.
आत्मा का होना
फिर न होना
नहीं होता है,
आत्मा अजन्मा,
नित्य, शाश्वत
और पुरातन है.
शरीर के नाश
होने पर इसका
नाश नहीं होता
(२.२०) हे
पार्थ, जो
मनुष्य आत्मा
को अविनाशी,
नित्य, जन्मरहित
और अव्यय
जानता है, वह
कैसे किसको मरवायेगा
और कैसे किसको
मारेगा ? (२.२१) ** जैसे
मनुष्य अप्ने
पुराने
वस्त्रों को
उतारकर दूसरा
धारण करता है,
वैसे ही जीव
अपने पुराने
शरीर को
त्यागकर
दूसरा नया
शरीर प्राप्त
करता है (२.२२) शस्त्र
इस आत्मा को
काट नहीं
सकते, अग्नि
इसको जला नहीं
सकती, जल इसको
गीला नही सकता
और वारु इसे
सुखा नहॊं
सकती, क्योंकि
आत्ना अछेद्य,
अदाह्य,
अक्लोद्य और
अशेष्य है,
आत्मा नित्य,
सर्वगत,
स्थिर, अचल और
सनातन
है.(२.२३-२४) यह
आत्मा
अव्यक्त,
अचिन्त्य और
निर्विकार कहा
जाता है. अतः
आत्मा को ऎसा
जान्कर
तुम्हे शोक
नहीं करना
चाहिए (२.२५) हे
महाबहो, यदि
तुम शरीर (में
रहेनेवाला
जीवात्मा ) को
नित्य पैदा
होने वाला तथा
मरनेवाला भी
मानो, तो भी
तुम्हें शोक
नहीं करना
चाहिए. क्योंकि
जन्म लेनेवालाकी
मृत्यु
निश्चित है ,
और मरने वाले
का जन्म
नोश्चित है.
अतः जो अटल है
उसके विषय में
तुम्हे शोक
नहीं करना
चाहिए (२.२६-२७) ** हे
अर्जुन, सभी
प्राणी जन्म
से पेहले
अप्रकट थे और
मृत्यु के बाद
फिर अप्रकट हो
जायेंगे, केवल
(जन्म और
मृत्यु के)
बीच में प्रकट
दीखते हैं,
फिर इसमें शोक
करने की क्या
बात है? (२.२८) कोई इस
आत्मा को
आश्चर्य की
तरह देखता है,
कोई इसका
आश्चर्य की
तरह वर्णन
करताहै, कोई
आश्चर्य की
तरह सुनता है,
और कोई इसके
बारे में सुन्कर
भी नहीं स्मझ
पाता है (२.२९) हे
अर्जुन, सबके
शरीर में
रहनेवाला यह
आत्मा सदा
अवध्य है,
इस्लिए किसी
भी प्राणी के
लिए तुम्हें
शोक नहीं करना
चाहिए (२.३०) और
अपने स्वधर्म
की दृष्टि से
भी तुम्हे
अपने कर्तव्य
से विचलित
नहीं होना
चाहिए,
क्योंकि क्षत्रिय
के लिये
धर्मयुद्ध से
बढकर दूसरा कल्याणकारी
कर्म नहीं है.
(२.३१) हे
पृथानन्दन, अपनेआप
प्राप्त हुआ
युद्ध स्वर्ग
के खुले हुए
द्वार जैसा
है, जो
सौभाग्यशाली
क्षत्रियों को
ही प्राप्त
होता है (२.३२) और यदि
तुम इस
धर्मयुद्ध को
नहीं करोगे,
तब अपने
स्वधर्म और
कीर्ति को
खोकर पाप को
प्राप्त होगे
(२.३३) तथा सब
लोग बहुत
दिनों तक
तुम्हारी
अपकीर्ति की
चर्चा करॆंगे,
सम्मानित
व्यक्ति के
लिए अपमान
मृत्यु से भी
बढकर है (२.३४) महारथि
लोग तुम्हें
डरकर युद्ध से
भागा हुआ मानेंगे
और जिनके लिए
तुम बहुत
माननीय हो,
उनकी
दृष्टिसे तुम
नीचे गिर
जाओगे. (२.३५) तुम्हारे
वैरी लोग
तुम्हारी
सामर्थ्य की
निन्दा करते
हुए तुम्हारी
बहुत बुराई
करेंगे.
तुम्हारे लिए
इससे अधिक
दुःखदायी और
क्या होगा ?
(२.३६) युद्ध में
मरकर तुम
स्वर्ग जाओगे
या विजयी होकर
पृथ्वी के
राज्य भोगोगे,
इसलिए हे
कौन्तेय, तुम
युद्ध के लिए
निश्चय करके
खडे हो जाओ
(२.३७) **सुख- दुःख,
लाभ-हानि और
जीत- हार की चिंता
न करके मनुष्य
को अपनी षक्ति
के अनुसार कर्तव्य-कर्म
करना चाहिए,
ऎसे भाव से
कर्म करने पर
मनुष्य को पाप
(अर्थात कर्म
का बन्धन) नहीं
लगता (२.३८) हे पार्थ,
मैने
सांख्यमत का
यह ज्ञान तुम
से कहा, अब
कर्मयोग का
विषय सुनो,
जिस ज्ञान से
युक्त होकर
तुम कर्म के बंधन
से मुक्त हो
जाओगे (२.३९) कर्मयोग
में आरम्भ
अर्थात् बीज
का नाश नहीं होता,
तथा उल्टा फल
भी नहीं मिलता
है. इस् निष्काम
कर्मयोगरूपी
धर्म क थोडासा
अभ्यास भी
(जनन्-मरण्
रूपी) महान्
दुख् से रक्षा
करता है (२.४०) हे अर्जुन,
कर्मयोगि
केवल
ईश्वर्प्राप्ति
का ही दृढ
निश्चय करता
है, परन्तु
सकाम
मनुष्यों की इच्छायें
अनेक और अनन्त
होती है (२.४१) हे पार्थ,
सकामी
अविवेकीजन
जिन्हें वेद
के मधुर
संगीतमय वाणी
से प्रेम
है,(वेद को
यथार्थ रूप से
नहीं समझने के
कारण ) ऎसा
समझते हैं कि
वेद में भोगों
के सिवा और
कुछ है ही
नहीं (२.४२) वे
कामनाओं से
युक्त
स्वर्ग को ही
श्रेष्ठ
माननेवाले
भोग और धन को
प्राप्त
कराने वाली
अनेक धार्मिक
संस्कारों को
बतते हैं जो पुनर्जन्म्रूपी
कर्मफल को
देनेवाली
होती है (२.४३) भोग अय्र
ऎश्वर्य ने
जिनका चित्त
हर लिया है ऎसे
व्यक्ति के
अन्तःकरण में
भगवत प्राप्ति
का धृढ निश्चय
नहीं होता है
और वे परमात्मा
का ध्यान नहीं
कर सकते हैं
(२.४४) हे अर्जुन,
वेदों (के
कर्मकाण्ड) का
विषय प्रकृति
के तीन गुणों
से संबन्धित
है, तुम
त्रिगुणातीत,
निर्द्वन्द्व,
परमात्मा में
स्थित योगक्षेम
न चाहनेवाले,
आत्मपरायण
बनो (२.४५) ब्रह्म को
तत्व से
जाननेवालों
के लिए वेदों
की उतनी
आवश्यकता
रहती है जितना
महान् सरोवर
के प्राप्त
होनेपर एक
छोटे जलाशय की
(२.४६) **केवल कर्म
करना ही
मनुष्य के वश
में है, कर्मफल
नहीं इस्लिये
तुम कर्मफल की
आसक्ति में न
फंसो, तथा
अपने कर्म का
त्याग भी न
करो (२.४७) **हे धनंजय,
परमात्मा के
ध्यान और
चिन्तन में स्थित
होकर, सभी
प्रकार की
आसक्तियों को
त्यागकर, तथा
सफलता और
असफलता में सम
होकर, अपने
कर्तव्यकर्मों
का पालन करो,
मन का समत्व
भाव में रहना
ही कर्मयोग
कहलाता है.
(२.४८) **
कर्मफल की
आसक्ति
त्यागकर कर्म
करनेवाला निष्काम
कर्मयॊगि इसी
जीवन मे पाप
और पुण्य से मुक्त
हो जाता है.
इसलिए तुम
निष्काम
कर्मयोगि बनो.
(फल की आसक्ति
से असफलता का
भय होता है,
जिस्के कारण
कर्म अच्छी
तरह नहीं हो
पाताहै) निष्काम
कर्मयोग को ही
कुशलता
पूर्वक कर्म
करना कहते हैं
.(४.५०) ज्ञानी
कर्मयोगी जन
कर्मफल की
आसक्ति को
त्यागकर
जनन-मरण के
बन्धन से
मुक्त हो जाते
हैं. तथा परम
शान्ति को प्राप्त
करते हैं.(२.५१) जब
तुम्हारी
बुद्धि
मोहरूपी दलदल
को पार कर जायगी
उस समय तुम
शास्त्र से
सुने हुए तथा
सुनने योग्य
वस्तुओं से भी
वैराग्य
प्राप्त करोगे
(२.५२) जब अनेक प्रकर
के प्रवचन
सुनने से
विचलित हुई
तुमहारी
बुद्धि
परमात्मा में
निश्चल रॊप से
स्थिर हो
जायेगी, उस
समय तुम समाधि
में परमात्मा
से युक्त हो
जाओगे (२.५३) अर्जुन
बोले- हे केशव,
समाधि
प्राप्त,
स्थिर बुद्धिवाले,
अर्थात
स्थितप्रज्ञ
मनुष्य का क्या
लक्षण है,
कैसे बैठता
है, कैसे चलता
है (२.५४) श्री
भगवान बोले -
हे पार्थ, जिस
समय साधक अपने
मन की
सम्पूर्ण
कामनाओं को
पूर्णरूप से
त्याग देता है
और आत्मा में
आत्मानन्द से
सन्तुष्ट
रहता है, उस
समय वह
स्थितप्रज्ञ
कहलाता है (२.५५) ** दुःख से
जिसका मन
उद्विग्न नही
होता, सुख की जिसको
आकांक्षा
नहीं होती,
तथा जिसके मन
से राग, भय और
क्रोध नष्ट हो
गये हैं , ऎसा
मुनि स्थितप्रज्ञ
कहा जाता है .
(२.५७) जैसे किसी
भी
वस्तु मे
आसक्ति न हो
जो शुभ को
प्राप्त्कर
प्रसन्न न हो
और अशुभ से
द्वेष न करे,
उसकी बुद्धि
स्थिर है (२.५७) जब साधक सब
ओर से अपनी
इन्द्रियों
को विषयोंसे
इस तरह हटा ले
जैसे कछुआ
(विपत्ति के
समय अपनी
रक्षा के लिये
) अपने अंगों
को समेट लेता
है , तब उसकि
बुद्धि स्थिर
समझनी चाहिए
(२.५८) इन्द्रियों
को विषयों से
हटाने वाले
मनुष्य से
विषयों की
इच्छा तो हट
भी जाती है,
परन्तु विषयों
की आसक्ति दूर
नहीं होती.
परमात्मा के
स्वरूप को (तारतम्य विद्या
द्वारा )
भलीभांति समझ
कर
स्थितप्रज्ञ
मनुष्य
(विषयों की )
आसक्ति से भी
दूर हो जाता
है (२.५९) ** हे कुन्तिनन्दन,
संयम का प्रयत्न
करते हुए ज्ञानी
मनुष्य के मन को
भी चंचल इन्द्रियां
बलपूर्वक हर लेती
हैं.(२.६०) इसलिए
साधक अपनी
संपूर्ण
इन्द्रियों
को वश में
करके, मुझ में
श्र्द्धापूर्वक ध्यान
लगाकर बैठे,
क्योंकि
जिसकी
इन्द्रियां
वश में होती
है उस की
बुद्धि स्थिर
होती है (२.६१) **विषयों
का चिन्तन
करने से
विषयों में
आसक्ति होती
है, आसक्ति से
(विषयों के सेवन
करने की)
इच्छा
उत्पन्न होती
है और इच्छा
(पूरी नहीं
होने) से
क्रोध होता है
(२.६२) **क्रोध
से सम्मोह
अर्थात
अविवेक
उत्पन्न होता
है. सम्मोह से
मन भ्रष्ट
होने पर
बुद्धि का नाश
होता है और
बुद्धि का नाश
होने से
मनुष्य का
पत्न होता है
(२.६३) रागद्वेश
रहित संयमी
साधक अ[पने वश
में की हुई
इन्द्रियों
द्वारा
विषयॊं को
भोगता हुआ
शान्ति
प्राप्त करता है
(२.६४) शान्ति
से सभी दुःखों
का अन्त हो
जाता है, शान्तचित्त
मौनुष्य की
बुद्धि शीघ्र
ही स्थिर होकर
परमात्मा से
युक्त हो जाती
है (२.६५) (ईश्वर से )
अयुक्त
मनुष्य के अन्तःकरण
में न ईश्वर
का ज्ञान होता
है, न ईश्वर की
भावना ही,
भावनाहीन
मनुष्य को
शान्ति नहीं
मिलती और
अशान्त
मनुष्य को सुख
कहां? (२.६६) **जैसे जल
में तैरती नाव
को तूफान उसे
अपने लक्ष्य
से दूर ढ्केल
देता है, वैसे
ही इन्द्रिय-सुख
मनुष्य की
बुद्धि को गलत
रास्ते की ओर
ले जाता है
(२.६७) इसलिए हे
अर्जुन, जिसकी
इन्द्रियां
सर्वथा विषयों
का वश में
नहीं होती है,
उसकी बुद्धि
स्थिर रहती है
(२.६८) सब
प्राणियॊम के
लिये जो
रात्रि है,
उसमें मनुष्य
जागा रेहता
है, और जब
साधारण
मनुष्य जागते
हैं,
तत्वदर्शी
मुनि के लिए
वह रात्रि के
समान होता है
(२.६९) ** जैसे सभी
नदियों का जल
समुद्र को
बिना विचलित
करते हुए
परिपूर्ण
समुद्र में
समा जाते है, वैसे
ही सब भोग जिस
संयमी मनुष्य
में विकार उत्पन्न
किए बिना समा
जाते हैं, यह
मनुष्य शान्ति
प्राप्त करता
है, न कि भोगों
की कामना करने
वाला (२.७०) जो
मनुष्य सब
कामनाओं को
त्याग्कर
इच्छारहित,
ममतारहित तथा
अहंकार रहित
होकर विचरण
करता है, वह ही
शान्ति
प्राप्त करता
है (२.७१) हे पार्थ ,
यही ब्राह्मी
स्थिति है,
जिसे प्राप्त
करने के बाद
मनुष्य मोहित
नहीं होत,
अन्तसमय में
भी इस निष्ठा
में स्थित
होकर मनुष्य ब्रह्मनिर्वाण
प्राप्त करता
है.(२.७२) ३.आप
मिश्रित
वचनों से मेरी
बुद्धि को
भ्रमित कर रहा
है, अतः आप उस
एक बात
निश्चितरुप
से हहिए, जिससे
मेरा कल्याण
हो (३.१-२) **
श्री भगवान
बोले – हे
निष्पाप
अर्जुन, इस
लोक में दो
प्रकार की निष्ठा
मेरे द्वारा
पेहेले कही
गयी है . जिनकी रुचि
ज्ञान में
लगती है उनकी
निष्ठा
ज्ञानयोग से
और कर्मसे
रुचि वालों की
निष्ठा
कर्मयोग से
होती है. (३.३) मनुष्य
कर्मका
त्यागकर कर्म
के बंधनों से
मुक्त नहीं
होता. केवल कर्म
का त्याग
मात्र से ही
सिद्धि की
प्राप्ति नहीं
होती. कोई भी
मनुष्य एक
क्षण भी बिना
कर्म किए नहीं
रह सकता,
क्योंकि
प्रकृति के
गुणों द्वारा
मनुष्यों से –परवश
की तरह – सभी
कर्म करवा लिए
जाते है (३.४-५) जो मूढ
बुद्धि
मनुष्य
इन्द्रियॊं
को (प्रदर्शन
के लिए) रोककर
मन द्वारा
विषयों का
चिन्तन करता
है, वह मिथ्याचारी
कहा जाता है .
(३.६) **परन्तु
हे अर्जुन, जो
मनुष्य
बुद्धि
द्वारा अपने
इन्द्रियों
को वश करके,
अनासक्त होकर,
कर्मेन्द्रियों
द्वारा
निष्काम
कर्मयोग का आचरण
करता है, वही
श्रॆष्ठ है
(३.७) तुम्
अपने कर्तव्य पालन
करो, क्योंकि
कर्म करना
श्रेष्ठ है,
तथा कर्म न
करने से शरीर
का निर्वाह भी
नहीं होगा (३.८) ** केवल अपने
लिए कर्म
कर्ने से
मनुष्य
कर्म-बंधन से
बंध जाता है,
इसलिए हे
अर्जुन,
कर्मफल की आसक्ति
त्यागकर,
सेवाभाव से
भलीभांति
अपना कर्तव्य
का पालन करो.
(३.९) सृष्टिकर्ता
ब्रह्मा ने
सृष्टि के आदि
में यज्ञ (अर्थात
निःस्वार्थ
सेवा ) के साथ
प्रजा का निर्माणकर
कहा – इस यज्ञ
द्वारा तुम
लोग वृद्धि
प्राप्त करो और
यह यज्ञ
तुम लोगों को
इष्टफल
देनेवाला हो
.(३.१०) तुम लोग
यज्ञ के
द्वारा
देवताओं को
उन्नत करो और
देवगण तुम
लोगों को
उन्नत करें.
इस प्रकार एक
दूसरे को
उन्नत करते
हुए तुम परम
कल्याण
प्राप्त होगे
(३.११) यज्ञ
द्वारा पोषित
देवगण तुम्हे
इष्टफल प्रदान
करेंगे.
देवताओं के
द्वारा दिए
हुए भोगों को
जो मनुष्य
उन्हे बिना
दिए
अकेलासेवन
करता है, वह
निश्चय ही चोर
है (३.१२) यज्ञ
से बचे हुए
अन्न को
खानेवाले
श्रेष्ठ
मनुष्य सब पापों
से मुक्त हो
जाताहै,
परन्तु जो लोग
केवल अपने लिए
्ही अन्न
पकाते हैं, वे
पाप के भागी होते
हैं (३.१३) समस्त
प्राणी अन्न
से उत्पन्न
होती है , अन्न वृष्टि
से होती है,
वृष्टि यज्ञ
से हिती है, यज्ञ
कर्म से, कर्म वेदों
में विहित है
और वेद
अविनाशी
ब्रह्म से उत्पन्न
हुआ जानो. इस
तरह
सर्वव्यापी
ब्रह्म सदा ही
यज्ञ(अर्थात
सेवा) में
प्रतिष्ठित
है. (३.१४-१५) **
हे पार्थ, जो
मनुष्य सेवा
द्वारा इस
सृष्टिचक्र
को चलने रहने
में सहयॊग
नहीं देता है,
वैसा पापमय,
भोगी मनुष्य
व्यर्थ ही
जीता है (३.१६) परन्तु
जो मनुष्य
परमात्मा में
ही रमण करता है,
तथा परमात्मा
में ही तृप्त
और संतुष्ट
रहता है, वैसे
आत्मज्ञानी
मनुष्य के लिए
कॊई कर्तव्य
शेष नहीं रहता
(३.१७) जो
कर्म करने से
या न करने से
कोई प्रयोजन
नहीं रहता,
तथा वह
(परमात्मा के
सिवा) किसी और
प्राणी पर
आश्रित नहीं
रहता (३.१८) **इसलिए
तुम असे ही
मनुष्य
परमात्मा को
अनासक्त होकर
सदा अपने
कर्तव्यकर्म
का भलीभांति
करो, क्योकि
अनासक्त रहकर
कर्म करने
परमात्मा को
प्राप्त करता
है (३.१९) **इसलिए
तुम असे ही
मनुष्य
परमात्मा को
अनासक्त होकर
सदा अपने कर्तव्यकर्म
का भलीभांति
करो, क्योकि
अनासक्त रहकर
कर्म करने
परमात्मा को
प्राप्त करता
है (३.१९) श्रेष्ठ
मनुष्य जैसा
आचरण करता है,
दूसरे लोग भी
वैसा आचरण
करते हैं, वह
जो प्रमाण
देता है,जन
समुदाय उसी का
अनुसरण करते
है (३.२१) हे
पार्थ, तीनों
लोकों में न
तो मेरा कोई
कर्तव्य है और
न कोई भी
वस्तु मुःए
अप्राप्त है,
फिर भी मै
कर्म कर्ता
हूं (३.२२) क्योंकि
यदि मैं
सावधान होकर
कर्म न करूं
हे पार्थ,
मनुष्य मेरे
ही मार्ग का
अनुसरण
करेंगे इसलिए
यदि मैं कर्म
न करूं, तो ये
सब लोक नष्ट हो
जायेंगे, और
मैं ही इनके
विनाश का तथा
अराजकता का
कारण बनूंगा
(३.२३-२४) **
ज्ञानी
कर्मफल में
आसक्त
अज्ञानियों
की बुद्धि में
भ्रम अर्थात
कर्मों में
अश्रद्धा न
करे, तथा स्वयं
(अनासक्त
होकर) समस्त
कर्मों को
भलीभांति
करता हुआ
दूसरों को भी
वैसा करना
प्रेरण दे. (३.२६) **वास्तव
में संसार के
सारे कार्य
प्रकृति मं के
गुणरूपी
परमॆश्वर की
शक्ति के
द्वारा ही किया
जाते हैं,
परन्तु
अज्ञानवश
मनुष्य अपने
आपको ही कर्ता
समझ लेता है
(तथा कर्मफल
की आसक्तिरूइफ
बंधनों से बंध
जाता है,
मनुष्य तो परम
शक्ति के हाथ
की केवल एक
कठपुतली
मात्र है ) (३.२७) परन्तु
हे महाबाहो,
गुण और कर्म
के रहस्य जाननेवाले ज्ञानी
मनुष्य ऎसा
समझकर – कि
(इन्द्र्यों
द्वारा)
प्रकृति के
घुण ही सारे
कर्म करते
हैं,( तथा
मनुष्य कुछ भी
नहीं कर्अता
है ) – कर्म में
आस्क्त नहीं
होते. (३.२८) प्रकृति
के गुणों
द्वारा मोहित
होकर अज्ञानी
मनुष्य गुणों
के ( द्वारा
किए गये) कर्मओं
में आसक्त
रहते हैं,
उन्हे ज्ञानी
मनुष्य सकाम
कर्म मार्ग से
विचलित न करें
(३.२९) **
मुझ में चित्त
लगाकर,
संपूर्ण
कर्मों (के फल )
को मिझ में
अर्पण करके,
आशा, ममता और
संतापरहित होकर
अपना कर्तव्य
(युद्ध) करो. (३.३०) जो
मनुष्य बिना
आलोचना किए,
श्रद्धा
पूर्वक मेरे
इस उप्देश का
सदा पालन करते
है, वे कर्मों के
बन्धन से
मुक्त हो
जाते
है. परन्तु जो
आलोचक मेरे इस
उपदेश का पालन
नहीं करते
उन्हें
अज्ञानी,
विवेकहीन तथा
खोया हुआ समझन
चाहिए (३.३१-३२) सभी
प्राणी अपने
स्वभाव-वश ही
कर्म करते
हैं, ज्ञानी
भी अपनी
प्रकृति के अनुसार
ही कार्य करता
है, फिर
इन्द्रियों
के निग्रह का
क्या प्रयोजन
है? (३.३३) **
प्रत्येक
इन्द्रिय के
भोग में राग
और द्वॆष, मनुष्य
के कल्याण
मार्ग में
विघ्न डालने
वाले , दो महान
शत्रु रहते
हैं, इसलिए
मनुष्य को राग
और द्वेष के
वश में नहीं
होना चाहिए .
(३.३४) अपना
गुणरहित सहज
और स्वाभाविक
कार्य आत्मविकास
के लिए दूसरे
अच्छे
अस्वाभाविक
कार्य से
श्रेयस्कर है.
स्वधर्म
कार्य में
मरना भी कल्याणकारक
है, अस्वाभविक
कार हानिकारक
होता है (३.३५) अर्जुन
बोले- हे
कृष्ण, न
चाहते हुए भी
बलपूर्वक
बाध्य किए के
समान किससे
प्रेरित होकर
मनुष्य पाप का
आचरण करता है
?(३.३६) **श्री
भगवान बोले-
रजो गुण से
उत्पन्नयह
काम है, यही
क्रोध है, कभी
पूर्ण नहीं
होने वाले इस
महापापी काम
को ही तुम
(आध्यात्मिक
माग का) श्त्रु
जानो (३.३७) **जैसे
धुएं से अग्नि
और धूली से
दर्पण ढक जाता
है, तथा जेर से
गर्भ ढका रहता
है, वैसे ही
काम
आत्मज्ञान को
ढक देता है,
(३.३८) हे
कौन्तेय
(अर्जुन)
अग्नि के समान
कभी तृप्त न
होनेवाला काम
अपने नित्य
शतृ, ज्ञान को
ढक देता है
(३.३९) **
इन्द्रियां,
मन और बुद्धि
काम के निवास
स्थान कहे
जाते हैं, यह
काम
इन्द्रियां ,
मन और बुद्धि
को अपने वश
में करके
ज्ञान को
ढ्ककर मनुष्य
को भटका देता
है (३.४०) इसलिए
हे अर्जुन,
तुम पहले अपनी
इन्द्रियो को वश
करके, ज्ञान
और विवेक के
नाशक इस पापी
कामरूपी
शत्रु का
विनाश करो
(३.४१) **
इस प्रकार
आत्मा को मन
और बुद्धि से
श्रेष्ठ
जानकर (सेवा,
ध्यान, पूजन, आदि
से किए हुए
शुद्ध )
बुद्धि
द्वारा मन को
वश में कर्के,
हे महाबाहो,
तुम इस दुर्जय
कामरूपी शत्रु
का विनाश करो
(३.४३) CHAPTER 4 श्री
भगवान बोले-
मैंने
कर्मयोग के इस
अविनाशी
सिद्धान्त को राजा
विवस्वान को
सिखाया,
विवस्वान ने
अपने पुत्र
मनु से कहा,
तथा मनु ने
अपने पुत्र
इक्ष्वाकु को
सिखाया, इस
प्रकार
परम्परा से
प्राप्त हुए
कर्मयोग को
राजर्शियों
ने जाना,
परन्तु हे
परन्तप, बहुत
दिनॊंके बाद
यह ज्ञान इस
पृथ्वीलोक
में लुप्तसा
हो गया. तुम
मेरे भक्त और
प्रिय मित्र
हो, इसलिए वही
पुरातन
कर्मयोग आज
मैंने
तुम्हें कहा
है, क्योंकि
कर्मयोग एक
उत्तम रहस्य
है. (४.१-३) अर्जुन
बोले – आपका
जन्म तो अभी
हुआ है तथा
सूर्यवंशी
राजा विवस्वा
का जन्म
सृष्टि के आदि
मैं हुआ था, अतः
मैं कैसे जानू
कि आपही ने
विवस्वान से
इस योग को कहा
था?(४.४) श्री
भगवान बोले-
हे अर्जुन
मेरे और
तुम्हारे बहुत
सारे जन्म हो
चुके हैं, उन
सब को मैं
जानता हूं पर
तुम नहीं
जानते (४.५) यद्यापि
मैं अजन्मा,
अविनाशी, तथा
समस्त प्राणियों
का ईश्वर हूं,
फिर भी अपनी
प्रकृति को अधीन
करके अपनी
योगमाया से
प्रकट होता
हूं (४.६) **
हे अर्जुन, जब
जब संसार में
धर्मकी हानी और
अधर्म की
वृद्धि होती
है, तब्तब
अच्छे लोगॊं
के लिए मैं,
परब्रह्मा
परमात्मा हर
युग में
अवतरित होता
हूं (४.७-८) हे
अर्जुअ, मेरे
जन्म और कर्म
दिव्य है. इसे
जो मनुष्य
भलीभांति जान
लेता है उसका
मरने के बाद
पुनर्जन्म
नहीं होता,
तथा वह मेरे
लोक, परन्धाम
को प्राप्त
करता है (४.९) राग,
भय और् क्रोध
से रहित, मुख
में तल्लीन,
मेरे आश्रित,
तथा
ज्ञानरूपी तप
से पवित्र
होकर, बहुत से
मनुष्य मेरे
स्वरूप को
प्रापत हो
चुकेहैं (४.१०) हे अर्जुन,
जो भक्त जिस्
किसी भी मनोकामना
से मेरी पूजा
करते हैं, मैं
उनकी मनोकामना
की पूर्ति
करता हूं,
मनुष्य अनेक
प्रकार् की
इच्छाओं की
पूर्ति केलिए
मेरी शरण लेते
हैं. (४.११) कर्मफल
के इच्छुक
सम्सार के
साधारण
मनुष्य देवताऒं
की पूजा करते
हैं, क्योंकि
मनुष्यलोक में
कर्मफल शीघ्र
ही प्राप्त होते
हैं .(४.१२) **
मेरे द्वारा
ही चारों वर्ण
अपने-अपने
गुण, स्वभाव,
और रुचि के
अनुसार बनाई
गई है, सृष्टि
की रचना आदि
कर्म के कर्ता
होनेपर भी मुझ
परमेश्वर को
अविनाशी और
अकर्ता ही
जानना
चाहिए(क्योंकि
प्रकृति के
गुण ही संसार
चला रहेहईं)
(४.१३) मुझे
कर्मफ्ल का
बंधन नहीं
लगता, क्योंकि
मेरी इच्छा
कर्मफल में
नहिं रहती है,
इस रहस्य जो
व्यक्ति
भलीभांति
समझकर मेरा
अनुसरण करता
है, वह भी कर्म
के बंधनों से
नहीं बांधता
है. (४.२४) प्राचीन
काल से मुमुक्षुओं
ने इस रहस्य
को जानकर कर्म
किए हैं,
इसलिए तुम भी
अपने कर्मों
का पालन करो
(४.१५) विद्वान
मनुष्य भी
भ्रमित हो
जाते हैं, कि
कर्म क्या है,
तथा अकर्म
क्या है,
इसलिए मैं
तुम्हे कर्म
के रहस्य को
समझाता हूं.
जिसे जानकर तुम
कर्म के
बंध्नों से
मुक्त हो
जाऒगे (४.१६) सकाम
कर्म, विकर्म
अर्थात
पापकर्म, तथा
निष्कामकर्म
(अर्थात
अकर्म) के
स्व्रूप को
भलीभांति
जान्लेना
चाहिए,
क्योंकि कर्म
की गतिबहुत ही
न्यारी है
(४.१७) **जो
मनुष्य कर्म
में अकर्म,
तथा अकर्म मॆं
कर्म देखता है
वही ज्ञानी,
यॊगी, तथा
समस्त कर्मों
करने वाला है.
(अपने को
कर्ता नहीं
मानकर प्रकृति
के गुणॊ को ही
कर्ता मानना
कर्म में अकर्म,
तथा अकर्म में
कर्म देखना
कहलाता है) (४.१८) जिस्के
सारे कर्मॊं
के संकल्प
ज्ञानरूपी अग्नि
से जलकर
स्वार्थरहित
हो गयए हैं,
वैसे मनुष्य
को ज्ञानीजन
पण्डित कहते
हैं . (४.१९) **जो
मनुष्य
कर्मफल में
आसक्ति का
सर्वथा त्याग्कर,
परमात्मा में
नित्यतृप्त
रहता है, तथा
(भगवान की
सिवा )किसी का
आश्र्य नहीं
रखता, वह कर्म
करते हुए
भी(वास्तव
में) कुछ भी
नहीं करत हैं (
तथा अकर्म
रहने के कारण
कर्म के बंधनों
से सदा मुक्त
रहता है. (४.२०) जो
आशा रहित है,
जिसको मन और
इन्द्रियां
वश में हैं,
जिसने सब
प्रकार के
स्वमित्व का परित्याग
कर दिया है,
ऎसा मनुष्य
शरीर से कर्म
करता हुआ भी
पाप (अर्थात
कर्म के बंधन)
को प्राप्त
नहीं होता है .
(४.२१) अपने
आप जो कुछ भी
प्राप्त हो
उअसमें
संतुष्ट रहने
वाला,
द्वद्वओं से
अतीत, ईर्षा
से रहित, तथा
सफलता और
असफलता में
समभाव वाला
कर्मयोगी कर्म
करता हुआ भी
कर्म के
बंधनों से
नहीं बाधता
है. (४.२२) जिसकी
ममता तथा
आसक्ति
सर्वथा मिट
गयी है, जिसका
चित ज्ञान में
स्थित है, ऎसे
परोपकारी
मनुष्य के
कर्म सभी बंधन
विलीन हो जाते
हैं. (४.२३) **यज्ञका
अर्पण, घी,
अग्नि, तथा
आहुति देने
वाला सभी
परब्रह्म
परमात्मा है, इस
तरह जो सब कुछ
में परमात्मा
का ही स्वरूप
देखता है, वह
परमात्मा को
प्राप्त होता
है (४.२४) कोई
योगिजन
देवताओं के
पूजनरूपि
यज्ञ करते हैं
और दूसरे
ज्ञानीजन
ब्रह्मरूपी
अग्नि में यज्ञ
के द्वारा
(सेवारूपी)
यज्ञ का हवन
करते हैं (४.२५) अन्य
योगीलोग
श्रोत्रादि
समस्त
इन्द्रियों
का संयमरूपी
अग्नि में हवन
करते हैं, तथा
कुछ लोग
शब्दादि
विषयों का
इन्द्रियरूपी
अग्नि में हवन
करते हैं (४.२६) दूसरे
योगिजन
संपूर्ण
इन्द्रियों
के और प्राणॊं
के कर्मों को
ज्ञान से
प्रकाशित
आत्मसंयमयोगरूपी
अग्नि में हवन
करते हैं (४.२७) दूसरे
साध्क
द्रव्ययज्ञन,
तथा योग यज्ञ
करते हैं और
दूसरे कठिन
व्रत
करनेवाले
स्वाध्याय और
ज्ञानयज्ञ
करते हैं (४.२८) (४.२९)
(४.३०) to be added **
हे
कुरुश्रेष्ठ
(अर्जुन), यज्ञ
के प्रसादरूपी
ज्ञानामृत को
प्राप्त्कर
योगिजन सनातन
परब्रह्म
परमात्मा को
प्राप्त करते
हैं. यज्ञ न
करने वाले
मनुष्य के लिए
परलोक तो क्य, यह
मनुष्य लोक भी
सुखदायक नहीं
होता (४.३१) वेदों
में ऎसे अनेक
प्रकार के
यज्ञो का
वर्णन किया
गया है, उन सब
यज्ञों को तुम
(शरीर, मन और इन्द्रियॊं
की) क्रिया
द्वारा
सम्पन्न
होनेवाले
जानो. इस
प्रकार जानकर
तुम (कर्मबन्धन
से ) मुक्त हो
जाओगे. (४.३२) **
हे परंतप
अर्जुन,
ज्ञानयज्ञ
द्रव्ययज्ञ
से श्रेष्ठ
है, क्योंकि
हे पार्थ,
तत्वज्ञान की
प्राप्ति ही
सारे साधन का
लक्ष्य
अर्थात परकाष्ठा
है (४.३३) ** उस
तत्वज्ञान को
तुम
ब्रह्मनिष्ठ
आचार्य के पास
जाकर, उन्हे
आदर, जिज्ञासा
तथ सेवा
प्रसन्न करके
सीखो,
तत्वदर्शी
ज्ञानी मनुष्य
तुम्हें
तत्वज्ञान का
उप्देश देंगे
(४.३४) जिसे
जानकर तुम
पुनः इस
प्रकार भ्रम
को नहीं प्राप्त
होगे, तथा हे
अर्जुन, इस
ज्ञान के द्वारा
संपूर्ण
भूतों को तुम
आत्मा –
अर्थात मुझ
परब्रह्म
परमात्मा –
में देखोगे
(४.३५) सब
पापियों से
अधिक पाप करने
वाला मनुष्य
भी सम्पूर्ण
पापरूपी
समुद्र को
ब्रह्मज्ञानरूपी
नौका द्वारा
निःसन्देह
पार कर जाएगा.
(४.३६) **क्योंकि
हे अर्जुन,
जैसे अग्नि
लकडी को जला देती
है, वैसे ही
ज्ञानरुपी
अग्नि कर्म
(के सारे
बंधनॊं ) को
भस्म कर
(मुक्ति का
द्वार खोल)
देती है (२.३७) **
इस संसार में
तत्वज्ञान के
समान(अन्तःकरण
कॊ) शुद्ध
करने वाला
निःसंदेह कुछ
भी नहीं है, उस
तत्वज्ञान को,
ठीक समय आने
पर, कर्मयोगी
अपने आप
प्राप्त कर
लेता है (४.३८) श्रद्धवान्,
साधन-परायण,
और
जितेन्द्रिय
मनुष्य
तत्वज्ञान को
प्राप्त्कर
शीघ्र ही परम
शान्ति
(मोक्ष) को
प्राप्त करता है
(४.३९) विवेकहीन,
श्रद्धाहीन,
तथा संशय
करनेवाले (नास्तिक)
मनुष्य का
आवागमन होता
है. संशय करने
वाले के लिए न
यह लोक है, न
परलोक है और न
सुखी ही है
(४.४०) हे
धनंजय अर्जुन,
जिसने
कर्मयोग के
द्वारा समस्त
कर्मों को
अर्पण कर
दियाहै, तथा
ज्ञान और
विवेक द्वारा जिनके
(परमात्मा के
बारे में )
समस्त संशयों
का विनाश हो
चुका है, ऎसे
आत्मज्ञानी
मनुष्य को
कर्म नहीं
बांधते हैं
(४.४१) **
इसलिए हे
भरतवंशी
अर्जुन तुम
अपने मन में
स्थित इस
अज्ञान्जनित
संशय को
ज्ञानरूपी
तलवार द्वारा काटकर
समत्वरूपी
कर्मयोग में
स्थित होकर कर्म
(अर्थात
युद्ध) करो.
(४.४२) CHAPTER 5 अर्जुन
बोले- हे
कृष्ण आप
कर्मसम्न्यास
और कर्मयोग
दोनों की
प्रशंसा करते
हैं, इन दोनों
में एक को जो
निश्चितरूप
से
कल्याणकारी
हो उसे मेरे
लिए कहिए (५.१) श्री
भगवान बोले-
कर्मसंन्यास
और कर्मयोग ये
दोनों ही परम
कल्याण्कारक
हैं, परन्तु
उन दोनों में
कर्मसंन्यास
से कर्मयोग
श्रेष्ठ है
(५.२) जो
मनुष्य न किसी
से द्वेष करता
है और न किसी वस्तु
की आकांक्षा
करता है, वैसे
मनुष्य को सदा
संन्यासी ही
समझना चाहिए,
क्योंकि, हे महाबाहो,
रागद्वेषादि
द्वद्वों से
रहित मनुष्य
सहज ही
बन्धन-मुक्त
हो जाता है. (५.३) **
अज्ञानी लोग
ही, न कि
पण्डितजन,
कर्मसंन्यास और
कर्मयोग को एक
दूसरे से
भिन्न समझते
हैं, क्योंकि
इन दोनों में
से किसी एक
में भी अच्छी तरह
से स्थित
मनुष्य दोनों
के फल को
प्राप्त कर
लेता है. (५.४) **
ज्ञान्योगियों
द्वारा जो धाम
प्राप्त किया जाता
है,
कर्मयोगियॊं
भी वहीं
प्राप्त किया
जाता है, अतः
जो मनुष्य
कर्मसंन्यास
और कर्मयोग को
फलरूप में
देखता है, वही
वास्तव में
देखता (अर्थात
समझता) है (५.५) **
हे अर्जुन,
कर्मयोग की
निःस्वार्थ
सेवा के बिना
शुद्ध
संन्यास-भाव
(अर्थात सम्पूर्ण
कर्मों में
कर्तापन के
भाव का त्याग)
का प्राप्त
होना कठिन है,
सच्चा
कर्मयोगी
शिघ्र ही
परमात्मा को
प्राप्त करता
है. (५.६) निर्मल
अन्तःकरण
वाला
कर्मयोगी
जिसका मन और इन्द्रियां
अपने वश में
है और जो सभी
प्राणियों
में एक ही
आत्मा को
देखता है, वह
कर्म करते हुए
भी उनसे लिप्त
नहीं होता (५.७) तत्वज्ञान
को जानने वाला
कर्मयोगी ऎसा
समझता है कि
मैं तो कुछ भी
नहीं ,करता
हूं, देखता
हूं, सुनता
हूं, स्पर्श
करता, सूधता,
खाता, चलता,
सोता, श्वास
लेता, देता,
लेता, बोलता
तथा आंखों को
खोलता और बन्द
करता हुआ भी
वह ऎसा जानता
है कि समस्त
इन्द्रियां
ही अपने अपने
विषयों में
विचरण कर रही
हैं (५.८-९) **जो
मनुष्य
कर्मफल में
आसक्ति का
त्यागकर , सभी
कर्मॊं को
परमात्मा में
अर्पण करता
है, वह
कमल के पत्ते
की तरह
पापरूपी जल से
कभी लिप्त
नहीं होता
(५.१०) कर्मयोगी
जन शरीर, मन,
बुद्धि और
इन्द्रियों द्वारा
आसक्ति को
त्यागकर केवल
अन्तःकरण की शुद्धि
के लिए ही
कर्म करते
हैं(५.११) **
कर्मयोगी
कर्मफल को
त्यागकर
(अर्थात
परमेश्वर को
अर्पण कर)परम
शान्ति को
प्राप्त होता
है और सकाम
मनुष्य
कर्मफल में
आसक्ति के कारण
बंध जाता
है(५.१२) कर्मयोगी
सभी कर्मों(
के फल में
आसक्ति ) को सर्वथा
अपने मन से
हटाकर— न कोई
कर्म करता हुआ
और न करवाता
हुआ = नौ द्वार वाले
शरीररूपी घर
में सुख से
रहता है (५.१३) ईश्वर
प्राणियों
में कर्तापन,
कर्म, तथा
कर्मफल के संयोग को
वास्तव में
नहीं रचता है,
प्रकृति मां
ही (अपने
गुणों से) सब
कुछ करवाती है
(५.१४) ईश्वर
किसी पाप और
पुण्य कर्म का
भाग नहीं होता,
अज्ञान के
द्वारा ज्ञान
को ढक जाने के
कारण ही सब
जीव भ्रमित
होते हैं( तथा
पाप कर्म करते
हैं ) (५.१५) परन्तु
जिनका अज्ञान
तत्वज्ञान
द्वारा नष्ट
हो जाता है,
उनका
तत्वज्ञान
सूर्य की तरह
सच्चिदानन्द
परमात्मा को
प्रकाशित कर
देता है (५.१६) **जिनका मन और
जिनकी बुद्धि
परमात्मा में
स्थित है,
परमात्मा में
जिनकी निष्ठा
है, ब्रह्म ही
जिनका परम
लक्ष्य है,
ऎसे मनुष्य
ज्ञान के द्वारा
पापरहित होकर
परमगति को
प्राप्त होते
हैं ( अर्थात
उनका
पुनर्जन्म
नहीं होता ) (५.१७) **
ज्ञानीजन
(सबों में
परमात्मा ही को देखने
के कारण)
विद्या और
विनय से
सम्पन्न
ब्राह्मण, तथा
गाय, हाथी,
कुत्ते,
चाण्डाल आदि
सबों को समभाव
से देखते हैं
(५.१८) ऎसे
समदर्शी
मनुषों ने इसी
जीवन में ही
संसार के
सम्पूर्ण
कार्यों को
समाप्त कर
लिया है. वे ब्रह्म
में ही स्थित
रहते हैं.
क्योंकि
ब्रह्म
निर्दोष और सम
है (५.१९) जो
मनुष्य प्रिय
के प्राप्तकर
हर्षित न हो,
और अप्रिय को
प्रापतकर
उद्विग्न न
हॊ, ऎसा स्थिरबिद्धि,
संशयरहित और
ब्रह्म को
जानने वाला
मनुष्य
परब्रह्म
परमात्मा में
नित्य स्थित
रहता है (५.२०) **ऎसा
ब्रह्मयुक्त
व्यक्ति –
अपने
अन्तःकरण में
ब्रह्मानन्द
को प्राप्तकर –
इन्द्रियों
के विषयॊं से
अनासक्त हो
जाता है और
अविनाशी परम
सुख का अनुभव
करता है (५.२१) जो
मनुष्य
मृत्यु से
पेहले काम और
क्रोध से उत्पन्न
होने वाले वेग
को समर्थ होता
है और वही
सुखी है (५.२३) जो
योगी आत्मा
में ही सुख
पाता है,
आत्मा में ही
रमण करता है,
तथा
आत्मज्ञानी
है, वह
ब्रह्मनिर्वाण
अर्थात
मुक्ति
प्राप्त करता
है (५.२४) जिनके
सब पाप नष्ट
हो गये हैं,
जिनके सभी
संशय ज्ञान
द्वारा नष्ट
हो चुके हैं,
जिनका मन वश
में हैं और जो सभी
प्राणियॊं के
हित में रत
रहते हैं, ऎसे
ब्रह्मवेत्ता
मनुष्य
ब्रह्म को
प्राप्त होते
हैं (५.२५) काम और
क्रोध से
रहित, जीते
हुए चित्त
वाले, तथा
आत्मज्ञानी
यतियों को
आसानी से ब्रह्मनिर्वाण
की प्राप्ति
होती हैं (५.२६) विषयों
का चिन्तन न करता
हुआ, नेत्रों
की दृष्टि को
भैंहों के बीच
स्थित करके,
नासिका में
विचरने वाले
प्राण और अपान
वायु को सम
करके, जिसकी इन्द्रियां,
मन और बुद्धि
वश में है तथा
जो इच्छा, भय
और क्रोध से
सर्वथा रहित
है, वह मुनि सदा
मुक्त ही है.
(५.२७-२८) मेरा
भक्त मुझको सब
यज्ञ और तपों
का भोक्ता,
सम्पूर्ण लोकों
का महेश्वर और
समस्त
प्राणियों का
मित्र जानकर
शान्ति को
प्राप्त करता
है. (५.२९) CHAPTER
6
६. आत्मसंयमयोगः ** हे
पाण्डव, जिसे
संन्यास कहते
हैं, उसी को
तुम कर्मयोग
समझो क्योंकि
स्वार्थ के
त्याग के बिना
मनुष्य कर्मयोगी
नहीं हो
सकता.(६.२) **
निष्काम
कर्मयोग को
समत्वयोग की
प्राप्ति का
साधन कहा जाता
है और योगारूढ
साधक के समत्व
(अर्थात
मानसिक
संतुलन,
आत्मसंयम) ही
ईश्वर्प्राप्ति
का साधन है, जब
मनुष्य
इन्द्रियों
के भोगों में,
तथा कर्मफल
में आसक्त
नहीं रहता है,
उस समय संपूर्ण
कामनाऒं का
त्याग करने
वाले
(संतुलित) व्यक्ति
को योगी कहते
हैं. (६.३-४) **
मनुष्य अपने
मन द्वारा
अपना उद्धार
करॆं, तथा
अपना पतन न
करें, क्योंकि
मन मनुष्य का
मित्र भी है
और मन ही
मन्य्ष्य का
शत्रु भी है.
जिसने अपने मन
और
इन्द्रियॊं
को बुद्धि
द्वारा जीत
लिया है, उसके
लिए मन उसका
मित्र होता
है, परन्तु
जिनकी
इन्द्रियां
वश में नहीं
होतीं, उसके
लिए मन शत्रु
के समान आचरण
करता है (६.५-६) जिसने मन को
अपने वशमें कर
लिया है, वह
सर्दी-गर्मी
सुख-दुःख, तथा
मान-अपमान में
शान्त रहता है,
ऎसे
जितेन्द्रिय
मनुष्य का मन
सदा परमात्मा
में स्थित
रहता है (६.७) ब्रह्मज्ञान
और विवेक से
परिपूर्ण,
जितेन्द्रिय
और समत्व
बुद्धि वाला
मनुष्य –
जिसके लिए
मिट्टी, पत्थर
और सोना समान
है – परमात्मा
से युक्त
अर्थात योगी
कहलाता है. (६.८) **
जो मनुष्य
सुहृद, मित्र,
वैरी, उदासीन,
मध्यस्थ, द्वेषी
सम्बन्धियों,
धर्मात्माओं
और पापियों में
भी समान भाव
रखता है, वह
श्रेष्ठ समझ
जाता है (६.९) आशारहित और
स्वामित्वरहित
साधक अपने मन
और इन्द्रियों
को वश करके,
एकान्तस्थान
में बैठकर,
एकाग्र चित से
मन को निरन्तर
परमात्मा के ध्यान
में लगावे.
(६.१०) साधक स्वच्छ
भूमि के ऊपर
क्रमशः, कुश,
मृगछाला और
वस्त्र बिछे
हुए अपने आसन
पर = जो न बहुत
ऊंचा और बहुत
नीचा हो-
बैठकर मन को
परमात्मा में
एकाग्र करके, चित्त
और
इन्द्रियॊं
की क्रियाओं
को वश में करके,
अन्तःकरण की
शुद्धि के लिए
ध्यानयोग का अभ्यास
करें. (६.११-१२) अपने शरीर,
गले और सिर को
अचल और सिधा
रखकर, कहीं
दूसरी ओर न
देखते हुए,
अपनी आंख और
ध्यान को
नासिका के अग्र
भाग पर जमाकर,
ब्रह्मचर्यव्रत
में स्थित, भयमुक्त,
तथा शान्त
होकर, मुखे ही
अपना परम लक्ष्य
मानकर, मुझ
में ध्यान
लगावे(६.१३-१४) इस तरह सदा मन
को परमात्मा
में लगाने का
अभ्यास करता
हुआ संयमित मन
वाला योगी परम
निर्वाणरूपी
शान्ति
(अर्थात
मुक्ति)
प्राप्त्कर
मेरे पास आता
है. (६.१५) परन्तु हे
अर्जुन, यह
योग उस मनुष्य
के लिए सम्भव
नहीं होता जो
अधिक खाने
वाला है, तथा
जो अधिक सोने
वाला है, या
सदा जागने
वाला है (६.१६) समस्त दुःखों
का नाश करने
वाला यह योग
नियमित आहार और
विहार, कर्मों
में यथायोग्य
चेष्टा, तथा
यथायोग्य
सोने और जगाने
वाले को ही
सिद्ध होता है
(६.१७) जब पूर्णरूप
से वश में
किया हुआ चित
समस्त कामनाओं
से रहित होकर
परमात्मा में
ही भलेभांति स्थित
हो जाता है, तब
मनुष्य योगी
कह जाता है
(६.१८) जिस तरह
वायुरहित
स्थान में
स्थित दीपक
चलायमान नहीं
होता,
परमात्मा में
लगे हे योगी
के साहित
चित्त की वैसी
ही उपमा दी
गयी है (६.१९) जब ध्यानयोग
का अभ्यास से
चित्त शान्त
होजाता है, तब
साधक्परमात्मा
को(ध्यान से
शुद्ध हुए मन
और ) बुद्धि द्वारा
देखकर
परमात्मा में
ही संतुष्ट
रहता है. (६.२०) मनुष्य
इन्द्रियों
से परे,
बुद्धि
द्वारा ग्रहण
करने योग्य
अनन्त सुख का
अनुभव करता
है, जिसे पाकर
वह परमात्मा
से कभी दूर
नहीं होता (६.२१) परमात्मा की
प्राप्ति के बाद
साधक उससे
अधिक दूसरा
कुछ भी
लाभ नहीं मानता
है, इस अवस्था
में स्थित
योगी बडे भारी
दुःख से भी
विचलित नहीं
होता है (६.२२) दुःख के
संयोग से
वियोग ही योग
कहलाता है,
जिसे जानना
चाहिए, तथा इस
ध्यानयोग का
अभ्यास उत्साह
और
निश्चयपूर्वक
करना चाहिए.
(६.२३) सम्पूर्ण
सकाम कर्मों
का
परित्यागकर,
बुद्धि
द्वारा सभी
इन्द्रियों
को अच्छी तरह
वश में करके,
अन्य कुछ भी
चिन्तन न करता
हुआ,
धीरे-धीरे
अभ्यस्त
बुद्धि
द्वारा मन को
परमात्मा में
लगाकर साधक
शान्ति
प्राप्त करता
है (६.२४-२५) **यह
चंचल और
अस्थिर मन
जिन-जिन
विषयॊं में
विचरण करे, हम
मात्र
दर्शक-रूप से
अपने आत्मा द्वारा
सदा उसका
प्रेक्षण (supervision)करते रहें.
(६.२६) जिसका मन
शान्त है, और
जिसकी (काम,
क्रोध, लोभ आदि)
रजोगुण
प्रवृत्तियं
नष्ट हो गई है,
ऎसे पापरहित
ब्रह्मस्वरूप
यॊगी को परम
आनन्द प्राप्त
होता है (६.२७) ऎसा पापरहित
योगी अपने मन
को सदा
परमेश्वर में
लगता हुआ
सुखपूर्वक
परब्रह्म
परमात्मा की
प्राप्तिरूपी
परम आनन्द का
अनुभव करता
है.(६.२८) ** योगयुक्त
मनुष्य सबों
में
सर्वव्यापी
परमात्मा को,
तथा
पर्मात्मा
में सबों को
देखने के कारण
समस्त
प्राणियों को
समान भाव से
देखता है (६.२९) ** जो मनुष्य सब
जगह (तथा सब
में) मुझ
परब्रह्म
परमात्मा
(श्रीकृष्ण)
को देखता है और
सबको मुझ में
देखता है, मैं
उससे अलग नहीं
रहता, तथा वह
भी मुअझ से
दूर नहीं
होता. (६.३०) जो मनुष्य
अद्वैतभाव से
सम्पूर्ण
भूतों में मुझ
परमात्मा को
ही स्थित
समझकर मेरी
उपासना करता
है, वैसा योगी,
किसी भी हालत
में क्यॊं
नहीं रहे, मुझ
में ही स्थित
रहता है (६.३१) ** हे
अर्जुन, वह
योगी परम
श्रेष्ठ माना
गया है, जो
सबों को अपने
जैसा समझे और
दूसरों के
दुःख और पीडा
का अनुभव कर
सके.(६.३२) अर्जुन बोले –
हे मधुसूदन,
आप्के द्वरा
कहे गये
ध्यानयोग की
यह समत्व
अवस्था – मन के
चंचल होने
कारण – स्थायी
नहीं हो सकती
है, क्योंकि
हे कृष्ण, यह मन
बडा ही चंचल,
दुष्ट, बलवान
और दृढ है, अतः
इसे वश में
करना वायु को
वश में करने
की तरह कठिन है.(६.३४) **श्रीभगवान
बोले – हे
महाबाहो,
निःसंदेह यह
मन बडा ही
चंचल और आसानी
से वश में
होने वाला
नहीं है,
परन्तु हे
कुन्तीपुत्र,
मन को (ध्यान
आदि का)
अभ्यास और
वैराग्य के
द्वारा वश में
किया जाता है
(६.३५) जिसका मन वश
में नहीं है
उसके द्वारा
परमात्मा
प्राप्ति
कठिन है,
परन्तु वश में
किये हए मन वाले
प्रयत्नशील
व्यक्ति को
साधन करने से
योग प्राप्त
होना सहज है,
ऎसा मेरा मत
है. (६.३६) अर्जुन बोले –
हे कृष्ण,
श्रद्धालु,
परन्तु
असंयमी
व्यक्ति जो
योग मार्ग से
विचलित हो
जाता है, ऎसा
साधक योग की
सिद्धि को न
प्राप्तकर
किस गति को
प्राप्त होता
है (६.३७) हे महाबा हो
कृष्ण, क्या
भगवन्प्राप्ति
के मार्ग से
गिरकर आश्रयरहित
व्यक्ति (भोग
और योग) दोनों
से वंचित
रहकर, छिन्न-भिन्न
बादल की तरह
नष्ट तो नहीं
हो जाता?(६.३८) हे महाबा हो
कृष्ण, क्या
भगवन्प्राप्ति
के मार्ग से
गिरकर
आश्रयरहित
व्यक्ति (भोग
और योग) दोनों
से वंचित
रहकर,
छिन्न-भिन्न
बादल की तरह
नष्ट तो नहीं
हो जाता?(६.३८) श्री भगवान
बोले- हे
अर्जुन, योगी
(के प्रयत्न) का
न इस जन्म में
न अगले जन्म
में नाश होता
है, हे तात, शुभ
काम
(योगाभ्यास)
करने वाला कोई
भी व्यक्ति
दुर्गति
अर्थात योनि
को प्राप्त
नहीं होता
है.(६.४०) असफल योगि
पुण्यकर्म
करने वालों को
लोकों को प्राप्तअकर,
वहां बहुत समय
तक रहकर फिर
अच्छे आचरण
वाले धन्वान
मनुष्यों
अथवा
ज्ञानवान
योगियों के घर
में जन्म लेता
है, परन्तु इस
प्रकार का
जन्म संसार
में बहुत ही
दुर्लभ है.
(६.४१-४२) हे
कुरुनन्दन
अर्जुन, वहां
उसे
पूर्वजन्म में
संग्रह किया
हुआ ज्ञान
अपने आप ही
प्राप्त हो जाता
है, तथा वह
योगसिद्धिके
लिए फिर
प्रयत्न करता
है (६.४३) **वह बेबस की
तरह अपने
पूर्वजन्म के
संस्कारों के
द्वारा
परमात्मा की
ओर सहज
ही आकर्षित
हो जाता है,
भगवत्प्राप्ति
के जिज्ञासु भी
वेद में कहे
हुए सकाम
कर्मफल की
प्राप्ति से
आगे का फल
प्राप्तकर
लेता है (६.४४) प्रयत्नपूर्वक
अभ्यास करने
वाला योगी
पिछले अनेक
जन्मों से
धीरे धीरे
शुद्ध होता
हुआ सारे
पापों से रहित
होकर परमगति
(अर्थात
मुक्ति) को
प्राप्त होता
है (६.४५) योगी( सकाम
भाव वाले)
तपस्वियों से
भी श्रेष्ठ
है, शास्त्र
ज्ञानियों से
भी श्रेष्ठ है
और सकाम कर्म
करने वालों से
भी श्रेष्ठ
है, अतः हे अर्जुन,
तुम योगी बनो.
(६.४६) **समस्त
योगियों में
भी जो
योगीभक्त मुझ
में तल्लीन
होकर
श्रद्धापूर्वक
मेरी उपासना
करता है, वही
मेरे मत से
सर्वश्रेष्ठ
है (६.४७) CHAPTER 7 ७. ज्ञानविज्ञान संयोगः श्री भगवान
बोले- हे पार्थ,
अनन्य प्रेम
से मुझ में
आसक्त मन
वाले, मेरे
आश्रित होकर
अनन्य
प्रेमभाव से
योग का अभ्यास
करते हुए तुम
मुझे
पूर्णरूप से
निःसंदेह
कैसे जान
सकोगे उसे
सुनो (७.१) मैं तुम्हे
ब्रह्म
अनुभूति
(विज्ञान)
सहित ब्रह्मविद्या
(ज्ञान)
प्रदान
करूंगा, जिसे
जानकर संसार
में फिर और
कुछ भी जानना
शेष नहीं
रहजाता है {७.२) हजारों
मनुष्यों में
कोई एक् मेरी
प्राप्ति के
लिए प्रयत्न
करका है और उन
प्रयत्न करने
वाले सिद्ध
योगीयों में
भी कोई एक
मुझे पूर्णरूप
से जान पाता
है (७.४) मेरी
प्रकृति-
पृथ्वी,
जल,अग्नि,
वायु, आकाश, मन, बुद्धि
और अहंकार
तत्व- आठ
प्रकार से
विभजित है.(७.४) हे महाबहो,
उपरोक्त
प्रकृति मेरी
अपरा शक्ति है,
इससे भिन्न
मेरी एक दूसरी
परा चेतन
शक्ति (अर्थात
पुरुष) है,
जिसके द्वारा
यह जगत धारण किया
जाता है (७.५) ** तुम ऎसा समझो
कि इन दोनों-
परा और अपरा-
शक्तियों के
संयोग से ही
समस्त प्राणी
उत्पन्न होते
हैं, तथा मैं,
परब्रह्म
परमात्मा, ही
सम्पूर्ण जगत
की उत्पत्ति
और प्रलय का
स्रोत हुं (७.६) **हे
धनंजय, मुझसे
श्रेष्ठ कुछ
भी नहीं है, यह
संपूर्ण जगत
मुझ परब्रह्म
परमात्मरूपी
सूत में (हार
की) मणियों की
तरह पिरोया
हुआ है.(७.७) हे अर्जुन,
मैं जल में रस
हूं, चन्द्रमा
और सूर्य में
प्रकाश हूं,
सब वेदों में
ऒंकार हूं, और
मनुष्यों में
मनुष्यत्व
हूं, मैं
पृथ्वी में पवित्र
गन्ध, और
अग्नि में तेज
हूं, संपूर्ण
भूतों का जीवन
और तपस्वियॊं
में तप
हूं.(७.८-९) हे पार्थ,
सम्पूर्ण
भूतों का
सनातन बीज
मुःए ही
जानों, मैं
बुद्धिमानों
की बुद्धि और
तेजस्वियॊं
का तेज हूं, हे
भरतश्रेष्ठ,
मैं आसक्ति और
कामना रहित
बलवानों का बल
हूं और मनुष्यों
में ध्रम का
अनुकूल
हूं(सन्तान की
उत्पत्ति के
लिए) किये
जानेवाला
सम्भोग हूं,
(७.१०-११) जो भी
सात्विक,
राजसिक, तथा
तामसिक गुण है
उन सबको तुम
मुझ्से ही
उत्पन्न हुआ
जानो, (अतः) वे
(गुण) मुझपर
निर्भर करते
हैं, परन्तु
मैं उनके
आश्रित या
उनसेप्रभावित
नहीं होता हूं
(७.१२) प्रकृति के
इन तीनों
गुणॊं के
कार्यों से यह
सारा संसार
भ्रमित रहता
है, अतः
मनुष्य इन
गुणों से परे
मुझ अविनाशी
परमात्मा को
नहीं जानता
है. (७.१३) **मेरी
इस अलौकिक
त्रिगुणमयी
माया को पार
करना बडा ही
कठिन है,
परन्तु जो
मनुष्य मेरी
शरण में आते
हैं, वे इस
माया को
(आसानी से) पार
कर जाते हैं.
(७.१४) पाप कर्म
करने वाले,
मूर्ख, असुरी
स्वभाव वाले
नीच मनुष्य,
तथा माया के
द्वारे हरे
हुए ज्ञान
वाले, मेरी
शरण में नहीं
आते हैं. (७.१५) ** हे
अर्जुन, चार
प्रकार के
उत्तम मनुष्य-
दुःख से
पीडित,
परमात्मा को
जानने की
इच्छा वाले जिज्ञासु,
धन या किसी
इष्टफल की
इच्छा वाले
तथा ज्ञानी –
मुझे भजते
हैं. (७.१६) उन
चार भक्तों
में भी मुझ
में निरन्तर
लगा हुआ अनन्य
भक्ति युक्त
ज्ञानी श्रेष्ठ
है, क्योंकि
मुझ परमात्मा
कोतत्व से जानने
वाले ज्ञानी
भक्त को भी
मैं अत्यन्त
ही प्रिय हूं,
औत वह भी मुजे
अत्यन्त
प्रिय है(७.१७) उपरोक्त
सभी भक्त
श्रेष्ठ है,
परन्तु मेरी
समझ से
तत्वज्ञ तो
साक्षात मेरा
ही स्वरूप है,
क्योंकि
युक्तात्मा
उत्तम गति को
प्राप्त कर
मेरे परमधाम
में निवास
करता है.(७.१८) **
अनेक जन्मों
के बाद
ब्रह्मज्ञान
प्राप्तकर कि
“यह सब कुछ
कृष्णमय है”,
मनुष्य मुझे
प्राप्त करता
है, ऎसा
महात्मा बहुत
दुर्लभ है,
(७.१९) भोगों
की कामना
द्वारा जिनका
ज्ञान हरा जा
चुका है, ऎसे
मनुष्य अपने
स्वभाव से प्रेरित
होकर
नियमपूर्वक
देवताओं की
पूजा करते है
(७.२०) **जो
कोई सकाम भक्त
जिस किसी भी
देवता को
श्रद्धापूर्वक
पूजना चाहता
है और उस भक्त
कि श्रद्धा को
उसी देवता के
प्रति स्थिर
कर देता हूं,
उस स्थिर
श्रद्धा से
युक्त मनुष्य
अपने इष्ट देव
का पूजा करता
है, और उस देवता
के द्वारा
इच्छित
भोगों को
निःसन्देह
प्राप्त करता
है. वास्तव
में वे इष्टफल
मेरे द्वारा
ही दिये जाते
हैं. (७.२१-२२) परन्तु
उन
अल्पबुद्धि
वाले
मनुष्यों को
(नाशवान)
देवताओं का
दिया हुआ फल
नाश्वान होता
है, देवताओं
को पूजने वाले
देवलोक को
प्राप्त करते
हैं, तथा मेरे
भक्त (परमधाम
में आकर ) मुझे
ही प्राप्त
करते हैं (७.२३) **अज्ञानी
मनुष्य मुझ
परब्रह्म
परमात्मा के –
मन, बुद्धि,
तथा वाणी से
परे, परम
अविनाशी—दिव्यरूप
को नहीं जानने
और समझने के
कारण ऎसा मान
लेते हैं कि
मैं बिनारूप
वाला निराकार
हूं, तथा रूप
धारण करता हूं
(७.२४) **जो
मूढ मनुष्य
मुझ परब्रह्म
परमात्मा के
जन्मरहित,
अविनाशी,
दिव्यरूप को
अच्छी तरह
नहीं जान तथा
समझ पाते हैं,
उन सब के
सामने – अपनी
योगमाया से
छिपा हुआ- मैं
कभी प्रकट नहीं
होत हूं (७.२५) हे
अर्जुन, मैं
भूत, वर्तमान
और भविष्य के
सब प्राणियों
को जानता हूं,
परन्तु मुझे
कोई नहीं
जानता (७.२६) हे
अर्जुन, राग
और द्वेष से
उत्पन्न
(सुख-दुःखदि)
द्वन्द्व
द्वारा
भ्रमित सभी
प्राणी अत्यन्त
अज्ञाता को
प्राप्त होते
हैं, परन्तु
निष्काम भाव
से अच्छ्त
कर्म करने
वाले जिन
मनुष्यों के
सारे पाप नष्ट
हो गये हैं, वे
राग-द्वेष
जनित भ्रम से
मुक्त होकर
दृढ्निश्चय कर
मेरी भक्ति
करते
हैं(७.२७-२८) जो
मेरे शरणागत
होकर जन्म और
मरण से मुक्ति
पाने के लिए
प्रयत्न करते
हैं, वे उस
परब्रह्म को
सम्पूर्ण
आध्यात्म को,
तथा सारे
कर्मों को पूर्णरूप
से जान जाते
हैं (७.२९) जो
युक्तचित्त
वाले मनुष्य –अन्त
समय में भी –
मुझे ही
अधिभूत और
अधिदैव और
अधियज्ञरूप
से
जानते हैं,
वे मुझको ही
प्राप्त होते
हैं.(७.३०) CHAPTER 8 अर्जुन
बोले – हे
पुरुषोत्तम,
ब्रह्म क्या
है? आध्यात्म
क्या है? कर्म
क्या है?
अधिभूत, तथा
अधिदैव किसे
केहते हैं?
अधियज्ञ कौन
है, तथा वह इस
देह में कैसे
रहता है? हे
मधुसूदन, संयत
चित्त वाले
मनुष्य
द्वारा अन्त
समय में आप
किस तरह जाने
जाते हैं? (८.१-२) **
श्री भगवान
बोले – परम
अविनाशी
आत्मा ही
ब्रह्म है.
ब्रह्म का स्वभाव
अध्यात्म कहा
जाता है,
प्राणियों को
उत्पन्न करने
वाली ब्रह्म
की क्रिया
शक्ति को कर्म
कहते हैं.(८.३) हे
श्रेष्ठ
अर्जुन, नश्वर
वस्तु को
अधिभूत और अक्ष्रर
ब्रह्म के
विस्तार
(नारायण आदि)
को अधिदैव
हहते हैं, इस शरीर
में परब्रह्म
परमात्मा, ही
अधियज्ञ हूं.(८.४) जो
मनुष्य
अन्तकाल में
भी मेरा ही
स्मरण करते हुए
शरीर छोडता
है, वह मुझे ही
प्राप्त होता
है. इसमे
संदेह नहीं
है.(८.५) हे
अर्जुन,
मनुष्य मरने
समय जिस किसी
भी भाव को
स्मरण करता
हुआ शरीर को
त्यागता है,
वह सदा उस भाव
के चिन्तन
करने के कारण
उसी भाव को
प्राप्त होता
है(८.६) **
इसलिए हे
अर्जुन, तुम
सदा मेरा
स्मरण करो और
अपना कर्तव्य
करो, इस तरह
मुझ में मन और
बुद्धि से
युक्त होकर
निःसन्देह
तुम मुझ्को ही
प्रापत
होगे.(८.७) हे
पार्थ,
परमात्मा के
ध्यान के
अभ्यासरूपी योग
से युक्त,
एकाग्र चित्त
से परमात्मा
का निरन्तर चिन्तन
करता हुआ साधक
परब्रह्म
परमात्मा को प्राप्त
होता है. (८.८) जो
भक्त सर्वज्ञ,
अनादि, सबके
नियन्ता,
सूक्ष्म, सबका
पालन पोषण
करने वाला,
अचिन्त्यरूप,
सूर्य के समान
प्रकाशित, तथा
अविद्या से
परे, परमात्मा
का सदा स्मरण
करता है, वह
भक्तियुक्त
अचल मन से
योगबल के
द्वारा प्राण
को भृकुटी के
बीच में अच्छी
तरह से
स्थापित करकेF
शरीर छोडने पर
परमात्मा को
प्राप्त करता
है.(८.९-१०) वेद
के जानने वाले
विद्वान जिसे
अविनाशी कहते
हैं,
आसक्तिरहित
यत्नशील
महत्मा जिसे
प्राप्त करते
हैं और जिस
परमपद की
प्राप्ति के
लिए साधक
ब्रह्मचर्य
व्रत का पालन
करते हैं, उसे
मैं संक्षेप में
कहूंगा (८.११) **जो
साधक सब
इन्द्रियों
को वश में
करके, मन को परमात्मा
में तथा प्राण
को मस्तक में
स्थापित कर,
तथा योगधारणा
में स्थित
हओकर,
अक्षर्ब्रह्म
(की
ध्वनि-शक्ति)
ओंकार, का
उच्चारण करके
मेरा स्मरण
करता हुआ शरीर
त्यागता है,
वह परमगति को
प्राप्त होता
है.(८.१२-१३) ** हे
अर्जुन, जो
मुझ में
एकाग्र मन से
ध्यान लगाकर
मेरा
नित्य-निरन्तर
स्मरण करता
है, उस
नित्य्युक्त
योगी को मैं
सह्ज ही
प्राप्त होता
हूं. (८.१४) महात्मा
लोग परम
सिद्धिरूपी
मुःए प्राप्त
करने के बाद फिर
इस नश्वर दुःख
भरे सन्सार
में
पुनर्जन्म नहीं
लेते (८.१५) हे
अर्जुन,
ब्रह्मलोक और
उसके नीचे के
सभी लोकों के
प्राणियों का
पुनर्जन्म
होताहै, परन्तु
हे
कुन्तीपुत्र,
मेरा लोक
अर्थात
परमधाम प्राप्त
होने पर
मनुष्य का पुनर्जन्म
नहीं होता
है.(८.१६) जो
लोग यह जानते
हैं कि
ब्रह्माजी के
एक दिन की
अवधि एक हजार
युग (अर्थात
४.३२ अरब वर्ष)
है,तथा उनकी
एक रात की
अवधि भी एक
हजार युग है,
वे दिन रात को
जानने वाले
हैं (८.१७) ब्रह्माजी
के दिन के
आरम्भ में
अव्यक्त अक्षर
ब्रह्म(अर्थात
आदि प्रकृति)
से सारा जगत
उत्पन्न होता
है, तथा ब्रह्माजी
की रात्रि के
आने पर जगत उस
अव्यक्त में
ही विलीन हो
जाता है. (८.१८) ** हे
पार्थ, वही
प्राणिसमुदाय
अवश जैसा हुआ
बार-बार
ब्रह्माजी के
दिन में
उत्पन्न, तथा
ब्रह्माजी के
रात्रि में
विलीन होता
रहता है,(८.१९) परन्तु
इस क्षर
प्रकृति से
परे एक दूसरी
अविनाशी आदि
प्रकृति है जो
सब भूतों के
नष्ट होने पर
भी नष्ट नहीं
होती. उसी को
अव्यक्त
अक्षरब्रह्म
अर्थात
परमगति कहा
गया है, वही
मेरा परमधाम
है, जिसे
प्राप्त कर
मनुष्य
आवागमन के
बन्धनों से
मुक्त हो जाता
है.(८.२०-२१) हे
पार्थ, सभी
प्राणी जिस
परमात्मा के
अन्दर है, तथा
जिससे यह
संसार
व्याप्त है,
वह परम पुरुष परमात्मा
अनन्यभक्ति
से प्राप्त
होता है.(८.२२) हे
भरतकुल
श्रेष्ठ, जिस
मार्ग द्वारा
शरीर त्यागकर
गये हुए
यॊगिजन वापस न
लौटने वाली
गति को और
लौटने वाली
गति को
प्राप्त होते
हैं, उन दोनों
मार्गॊं को
तुम्हे
बताऊंगा (८.२३) जो
ब्र्ह्मविद
साधकजन अग्नि,
प्रकाश, दिन,
शुक्लपक्ष और
उत्तरायण के
छः मास वाले
(ज्ञान का प्रकाश)
मार्ग द्वारा
जाते हैं, वे
ब्रह्म को प्राप्त
होते हैं ( तथा
पुनह संसार
में वापस नहीं
आते हैं) (८.२४) धूम,
रात्रि,
कृष्णपक्ष और
दक्षिणायन के
छः मास वाले
(अज्ञान)
मार्ग से जाने
वाला सकाम
योगी स्व्र्ग
जाकर पुनः
वापस आता है
(८.२५) **
जगत में ये दो –
शुक्ल और
कृष्ण (अर्थात
ज्ञान और
अज्ञान) –
सनातन मार्ग
माने गये है,
इनमें ज्ञान
मार्ग
के द्वारा
जाने वालों को
लौटना नहीं पड्ता
और अज्ञान
मार्ग वालों
को लौटना पडता
है.(८.२६) हे
पार्थ, इन दो
मार्गों को
तत्व से जानने
वाला कोई भी
योगी भ्रमित
नहीं होता.
इसलिए हे अर्जुन,
तुम सदा
योगयुक्त
रहो.(८.२७) योगी
इस रहस्य को
सम्झकर वेदों
में, यज्ञों
में, तपों में
तथा दान में
जो पुण्यफल
कहे गये हैं,
उन सबका
उल्लंघन कर
जाता है और
परब्रह्मा के
परम्धाम को
प्राप्त करता
है (८.२८) CHAPTER 9 श्रीभगवान
बोले- तुम
दोष्दृष्टि
रहित को मैं इस
परम्विद्या
(ज्ञान ) को
ब्रह्म
अनुभूति (विज्ञान)
सहित कहता हूं
जिसे जानकर
तुम जन्म-मरण दुःखरूपी
संसार से
मुक्त हो
जाओगे. (९.१) यह
तत्वज्ञान सब
विद्याओं का
राजा,
रहस्यमय, अत्यन्त
पवित्र,
प्रत्यक्ष
फल्वाला,
धर्मयुक्त,
साधन में
सुगम, तथा
अविनाशी
है.(९.२) हे
परन्तप
अर्जुन, इस
धर्म में
श्रद्धा न
रख्ने वाले
मनुष्य मुझे न
प्राप्त होकर
मृत्युरूपी
संसार में
बारबार जन्म
लेते हैं (९.३) ** यह
सारा संसार
मुझ परब्रह्म
परमात्मा की
आदि प्रकृति
अर्थात
अव्यक्त
अक्षरब्रह्म
का विस्तार
है, सभी मुझपर
आश्रित या
स्थित है, मैं
उन्पर आश्रित
नहीं रहता (९.४) मेरी
ईश्वरीय
योगशक्ति के
देखो कि
वास्तव मे मैं-
सभी भूतों को
उत्पन्न तथा
पोषण करने
वाला- उनपर
आश्रित नहीं रहता,
तथा वे सब
मुझ्पर आशित
नहीं रहते. (९.५) **
जैसे सर्वत्र
विचरण करने
वाली महान
वायु सदा आकाश
में (बिना कोई
सहारा लिए)
स्थित रहती है
वैसे ही सभी
मुझ में स्थित
रहते हैं, ऎसा
समझो (९.६) हे
अर्जुन, एक
कल्प के अन्त
में सम्पूर्ण
सृश्टि मेरी
आदि प्रकृति
में लय हो
जाती है,और
दूसरे कल्प के
प्रारम्भ मे मैं
फिर उस्की
रचना कर्ता
हूं (९.७) मैं
अपनी
मायारूपी
प्रकृति के
द्वारा इन समस्त
प्राणि
समुदाय को - जो
प्रकृति (के
गुणों) के वश
में रहते हैं –
बार-बार रचता
हूं.(९.८) हे अर्जुन,
सृष्टि की
रचना आदि
कर्मों में
अनासक्त और
उदासीन रहने
के कारण वे
कर्म मुझ
(परमात्मा) को
नहीं बाधते.
(९.९) हे
अर्जुन, मेरी
अध्यक्षता
में माया देवी
(अपनीप्रकृति
के द्वारा)
चराचर जगत को
उत्पन्न करती
है, इस तरह
सृष्टि-चक्र
चलता रहता है
(९.१०) मुझ
परमेश्वर के
परम भाव को
नहीं जानने की
कारण – जब मैं
मनुष्य का
शरीर धारण
करता हूं –
मूढलोग ( मुझे
साधारण
मनुष्य समझकर
) मेरा अनादर
करते हैं,
क्योंकि वे
राक्षसी और
असुरी स्वभाव
से मोहित,
वृथा आशा,
वृथा कर्म,
तथा वृथा ज्ञान
वाले अविचारी
मनुष्य(मुझे
नहीं पहचान पाते)
है. (९.१२) परन्तु
हे
अर्जुन,दैवी
स्वभाव वाले महात्मा
लोग मुझे
अविनाशी, तथा
सम्पूर्ण
प्रणियॊ का
कारण समझकर
अनन्य मन से
मेरी भक्ति
करते है.(९.१३) मेरा
सतत कीर्तन
करते हुए,
प्रयत्नशील,
दृढ्व्रती
साधक मुझे
नमस्कार करके
भक्तिपूर्वक
निरन्तर मेरी
उपासना करते
हैं (९.१४) कोई
साधक
ज्ञानयज्ञ के
द्वारा, कोई
अद्वैतभाव से,
दूसरे
द्वैतभाव से,
तथा कोई अनेक
प्रकार पूजा
करके मुझ
विराट्स्वरूप
परमेश्वर की
उपासना करते
हैं (९.१५) धार्मिक
संस्कार मैं
हूं, औषधि मैं
हूं, मन्त्र
मैं हूं, घी
मैं हूं,
अग्नि मैं
हूं, तथा हवन
कर्म भी मैं
हि हूं, मै ही
इस जगत की
पिता, माता,
धारण करने वाला
और पितामह
हूं, मैं ही
जानने योग्य
वस्तु हूं,
पवित्र ओंकार,
ऋग्वेद,
सामवेद,और
यजुर्वेद भी
मैं हूं,
प्राप्त करने
योह्य परमधाम,
भरण करने
वाला, सबका
स्वामी,
साक्षी
निवासस्थान,
शरण लेने
योग्य, मित्र,
उत्पत्ति,
प्रलय, आधार,
निधान और
अविनाशी कारण
भी मैं ही हूं
(९.१६-१८) हे
अर्जुन्, मैं
ही (संसार् के
हित के लिए)
सूर्यरूप से
तपाता हूं,
मैं वर्षा का
निग्रह और उत्सर्जन
करता हूं,
अमृत और
मृत्यु, तथा
सत और असत भी
मैं ही
हूं.(९.१९) तीनों
वेदॊं में कहे
हुए सकाम कर्म
करने वाले,
(भक्तिरूपी)
सोमरस पान
करने वाले,
पापरहित
मनुष्य मुझे
यज्ञ के
द्वारा पूजकर
स्वर्ग
प्राप्त करने
की प्रार्थना
करते हैं, वे
अपने पुण्यॊं
के फलरूप
इन्द्रलोक को
प्राप्त कर
स्वर्ग में
दिव्य
देवताओं के
भोगों को भोगते
हैं (९.२०) वे
लोग उस विशाल
स्वर्गलोक के
भोग को भोगकर,
पुण्य को
प्राप्त होते
हैं
समाप्त होने
पर फिर
मृत्युलोक
में आते हैं,
इस प्रकार
तीनें वेदों
में कहे हुए
सकाम कर्म
करने वाले
मनुष्य
आवागमन (९.२१) जो
भक्तजन अनन्य
भावसे चिन्तन
करते हुए मेरी
उपासना करते
हैं, उन
नित्ययुक्त
भक्तों का योगक्षेम
मैं स्वयं वहन
करता हूं (९.२२) हे
कुन्तीनन्दन
अर्जुन, जो
भक्त
श्रद्धापूर्वक
दूसरे
देवताओं को
पूजते हैं वे
भी मेरा ही
पूजन करते हैं
– पर (मेरा
अद्वैतरूप को
नही जानने के
कारण) अज्ञान्पूर्वक
(९.२३) क्योंकि
सब यज्ञों का
भोक्ता और
स्वामी मैं –
परब्रह्म
परमात्मा – ही
हूं, पर्न्तु
वे मुझ
(परमेश्वर के
अधियज्ञ स्वरूप)
को तत्व से
नहीं जानते,
इसीसे उनका पतन
अर्थात
आवागमन होता
है. (९.२४) देवताओं
को पूजने वाले
देवलोक जाते
हैं, पितरों
को पूजने वाले
पितृलोक जाते
हैं,
भूत-प्रेत को
पूजने वाले
भूत-प्रेत के
लोक को जाते
हैं, तथा मेरी
पूजा कर्ने
वाले
भक्त मेरे
परमधाम को
जाते हैं ( और
उनका
पुनर्जन्म
नहीं होता)(९.२५) जो
मनुष्य
प्रेमभक्ति
से पत्र, फूल,
फल, जल, आदि कोई
भी वस्तु मुझे
अर्पण करता
है, तो मै उस
शुद्धचित्त
वाले भक्त का
वह
प्रेमोपहार
केवल स्वीकार
नहीं करता,
बल्कि उसका
भोग भी करता
हूं (९.२६) ** हे
अर्जुन, तुम
कुछ कर्म करते
हो, जो कुछ हवन
करते हो, जो
दान देते हो,
जो तप करते हो
वह सब मुझे ही
अर्पण करो
(९.२७) इस
प्रकार
संन्यासयोग्युक्त
होकर कार्य करने
से तुम कर्मफल
के शुभ और
अशुभ दोनों
बन्धनों से
मुक्त होकर
मुझे ही
प्राप्त
करोगे.(९.२८) **सभी
प्राणी मेरे
लिए बराबर है,
नमेरा कोई
अप्रिय और न
प्रिय परन्तु
जो श्रद्धा और
प्रेम से मेरी
उपासना करते
हैं, वे मेरे
समीप रहते हैं
और मैं भी
उनते निकट
रहता हूं (९.२९) यदि
कोई
बडे-से-बडा
दुराचारी भी
अनन्य भतिभाव से
मुझे भजता है,
तो उसे भी
साधु ही मानना
चाहिए,
क्योंकि उसने
यथार्थ
निश्चय किया
है (९.३०) और
वह शीघ्र ही
धर्मात्मा हो
जाता है, तथा
परम शान्ति को
प्राप्त होता
है, तुम यह
निश्चयपूर्वक
सत्य मानो कि
मेरे भक्त का
कभी विनाश
अर्थात पतन
नहीं होता
है.(९.३१) हे
अर्जुन,
स्त्री,
वैश्य, शूद्र,
पापी आदि जो
कोई भी मेरी
शरण में आते
हैं वे सभी
परम्धाम को
प्राप्त करते
हैं. (९.३२) फिर
पुण्यशील
ब्राह्मणों
और राजर्षि
भक्तजनों का
तो कहना ही
क्या ? इसलिए
यह
क्षण्भंगुर और
सुखरहित
मनुष्य शरीर
पाकर तुम
निरन्तर मेरा
ही भजन
करो.(९.३३) **
मुझ में मन
लगाओ, मेरे
भक्त बनो,
मेरी पूजा
करॊ, मुझे
प्रणाम करो.
इस प्रकार मुझे
अपना परम
लक्ष्य मानकर
अपने-आपको मुझ
से युक्त करके
तुम मुझे ही
प्राप्त होगे
(९.३४) CHAPTER 10 श्री
भगवान बोले –
हे अर्जुन,
मेरे परम वचन
को तुम फिर
सुनो, जिसे मैं
तुम जैसे
अतिशय प्रेम
रखनेवाले के
हित के लिए
कहूंगा.(१०.१) मेरी
उत्पत्ति को
देवता, महर्षि
आदि कोई भी नहीं
जानते हैं,
क्योंकि मैं
सभी देवताओं
और महर्षियों
का भी आदिकारण
हूं (१०.२) जो
मुझे अजन्म,
अनादि और समस्त
लोकों के महान
ईश्वर के रूप
में जानता है,
वह मनुष्यों
में ज्ञानी है
और सब पापों
से मुक्त हो
जाता है.(१०.३) बुद्धि,
ज्ञान, भ्रम
का अभाव,
क्षमा, सत्य,
इन्द्रिय
संयम, मन
संयम, सुख,
दुःख,
उत्पत्ति, प्रलय,
भय, अभय,
अहिंसा, समता,
संतोष, तप, दान,
यश, अपयश आदि प्राणियों
के अनेक
प्रकार के भाव
मुझसे ही प्रकत
होते हैं
(१०.४-५) सात
महर्षि, उनसे
पेहले चार
सनकादि, तथा
चौदह मनु ये
सब मेरे
संकल्प से
उत्पन्न हुए
हैं, जिनकी
संसार में ये
सारी प्रजा
है.(१०.६) जो
मनुष्य मेरी
इस विभूति और
योग्मय तत्व
से जानता है,
वह अविचल भक्तियोग
से युक्त हो
जाता है, इसमे
कुछ भी संशय नहीं
(१०.७) **
मैं ही सबकी
उत्पत्ति का
कारण हूं और
मुझ से ही जगत
का विकास होता
है. ऎसा जानकर
बुद्धिमान भक्तजन
श्रद्धापूर्वक
मुः परमेश्वर
को ही निरन्तर
भजते हैं (१०.८) मुझ
में ही चित्त
स्थिर रखने
वाले और मेरी
शरण में आने
वाले भक्तजन
आपस में मेरे
गुण, प्रभाव
आदि को एक
दूसरेसे कहते
हुए निरन्तर
संतुष्ट रहकर
रमते हैं(१०.९) **निरन्तर
मेरे ध्यान
में लगे
प्रेमपूर्वक
मेरा भजन करने
वाले भक्तों
को मैं
ब्रह्मज्ञान और
विवेक देता
हूं, जिससे वे
मुझे प्राप्त
करते
हैं.(१०.१०) उनपर
कृपा करके
उनके
अन्तःकरण में
रगने वाला,
मैं, उनके
अज्ञान्जनित
अन्धकार को
तत्वज्ञानरूपी
दीपक द्वारा
नष्ट कर देता
हूं (१०.११) अर्जुन
बोले, आप
परब्रह्म,
परम्धाम और
परमपवित्र
हैं, आप
शाश्वत दिव्य
पुरुष,
आदिदेव, अजन्मा
औत
सर्वव्यापी
हैं, ऎसा
देवर्षि नारद,
असित, देवल,
व्यास आदि
समस्त ऋषिजन,
तथा स्वयं आप
भी मुझसे कहते
हैं. (१०.१२-१३) हे
केशव, मुझसे
आप जो कुछ कह
रहे हैं इन
सब्को मैं
सत्य मानता
हूं, हे भगवन,
आपके
वास्तविक स्व्रूप
को न देवता
जानते हैं, और
न दानव(१०.१४) **हे
प्राणियों को
उत्पन्न करने
वाले, हे
भूतेश, हे
देवों के देव,
जगत के
स्वामी,
पुरुषोत्तम,
केवल आप स्वयं
ही अपने आपको
जानते
हैं(१०.१५). अतः
अपनी उन दिव्य
विभूतियॊं को –
जिनसे आप इन
सम्पूर्ण
लोकों में
व्याप्त होकर
स्थित रहते
हैं – पणरूपसे
वर्णन करने
में केवल आप
ही समर्थ हैं.(१०.१६) हे
योगेश्वर, मैं
आपको निरन्तर
चिन्तन करता
हुआ कैसे
जानूं और हे
भगवन, किन-किन
भावों द्वारा
मैं आपका
चिन्तन करूं?
(१०.१७) हे
जनार्दन, आप
अपनी
योगशक्ति एवं
विभूतियों को
विस्तारपूर्वक
फिर से कहिए,
क्योंकि आपके अमृतमय
वचनों को
सुनते हुए
मुझे तृप्ति
नहीं हो रही
है. (१०.१८) श्री
भगवान बोले-
हे
कुरुश्रेष्ठ,
अब मैं अपनी
प्रमुख दिव्य
विभूतियों को
तेरे लिए
संक्षेप में
कहूंगा,
क्योंकि मेरे
विस्तार का तो
अन्त ही नहीं (१०.१९) हे
अर्जुन, मैं
समस्त
प्राणियों के
अन्तःकरण में
स्थित आत्मा
हूं, तथा
सम्पूर्ण
भूतों के आदि,
मध्य और अन्त
भी मैं ही हुं (१०.२०) मैं
अदिति के
(बारह) पुत्रो
में विष्णु और
ज्यओतियों
में
प्रकाशमान
सूर्य हूं,
वायु देवताओं
में मरीचि और
नक्षत्रों
में चन्द्रमा
हूं(१०.२१) मैं
वेदों में
सामवेद हूं,
देवों में
इन्द्र हूं,
इन्द्रियों
में मन हूं और
प्राणियॊं की
चेतन
हूं(१०.२२) मैं
रुद्रों में
शंकर हूं और
यक्ष तथा
राक्षसों में
धनपति कुबेर
हूं, वसुओं
में अग्नि और
पर्वतों में सुमेरु
पर्वत हूं
(१०.२३) हे
पार्थ, मुझे
पुरोहितों
में उनका
मुखिया बृहस्पति
जानों, मैं
सेनापतियों
में स्कन्द,
जलाशयों में
सागर
हूं.(१०.२४) मैं
महर्षियॊं
में भृगु और
शब्दों में
ओंकार हूं,
मैं यज्ञों
में जपयज्ञ और
स्थिर रहने
वाले में
हिमालय पर्वत
हूं (१०.२५) मैं
समस्त
वृक्षों में
पीप; का वृक्ष,
देवर्षियों
में नारद,
गन्धर्वों
में चित्ररथ
और सिद्धॊं
में कपिल मुनि
हूं (१०.२६) मैं
अश्वों में
अमृत के साथ
समुद्र से
प्रकट हुए
उच्चैश्रव
नामक घोडा,
हाथियॊं में
ऐरावत और
मनुष्यॊं में
राजा,
शास्त्रों
में वज्र,
गायों में कामधेनु,
संतान की
उत्पत्ति के
लिए कामदेव और
सर्पों में
वासिकि
हूं(१०.२७-२८) मैं
नागों में
शेषनाग, जल
देवताओं में
वर्ण, पितरों
में अर्यमा और
शासकों में
यमराज, दिति के
वंशजों में
प्रहलाद,
गण्अना करने
वालों मे समय,
पशुओं में
सिंह और
पक्षियों में
गरुड हूं (१०.२९-३०) में
पवित्र करने
वालों में
वायु हूं,
शस्त्रधारियों
में राम हूं,
जलच्रों में
मगर और नदियों
में पवित्र
गंगा नगी हूं
(१०.३१) हे
अर्जुन, सारी
सृष्टि का आदि
, मध्य और अन्त
भी मुझसे होता
है. मैं
विद्याओं में
तारतम्य
विद्या और
विवाद करने
वालों का तर्क
हूं (१०.३२) मैं
अक्षरों में
अकार हूं,
समासों में
द्वन्द्व
समास हूं,
अक्ष्यकाल
अर्थात अकाल
पुरुष, तथा
विराट्स्वरूप
से स्बका पालन
पोषण करने वाला
भी मैं ही हूं
(१०.३३) मैं
सबका नाश करने
वाली मृत्यु
और भविष्य में
होने वालों की
उत्पत्ति का
कारण हूं
संसार की सात
श्रेष्ठ
देवियां जो
कीर्ति, श्री,
वाणी, स्मृति,
मेधा, धृति और
क्षमा के
अधिनिष्ठात्रियां
हैं, वे भी मैं
ही हूं (१०.३३) मैं
सामवेद के
गाये जाने
वाले
मन्त्रों में
बृहत्साम, वैदिक
छन्दों में
गायत्री छन्द,
महीनों मे
मार्गशीर्ष
और ऋतुओं में
वसन्त ऋतु हूं
(१०.३५) मैं
छलियों में
जुआ,
तेजस्वियों
तेज, तथा विजय,
निश्चय और
सात्विक
मनुष्यों का
सात्विक भाव हूं
(३०.३६) मैं
वृष्णि
वंशियों में
कृष्ण,
पाण्ड्वों मे अर्जुन,
मुनियों मे
व्यास और कवियों
में
शुक्राचार्य
हूं(१०.३७) मैं
दमन करने में
दण्ड्नीति और
विजय चाहने वालों
में नीति हूं,
नैं गोपनीय
भावों में मौन
और ज्ञानियों
का तत्वज्ञान
हूं (१०.३८) हे
अर्जुन, समस्त
प्रानियों की
उत्पत्ति का बीज
मैं ही हूं,
क्योंकि चर
अचर
किसि का अस्तित्व
मेरे बिना
नहीं है
(अर्थात सब
कुछ मेरा ही
स्वरूप है) (१०.३९) हे
अर्जुन, मेरी
दिव्य
विभूतियों का
तो अन्त ही
नहीं है. मैने
तुम्हे अपनी
विभूतियों के
विस्तार क
वर्णन
संक्षेप में
कहा है. (१०.४०) मैं
जो
विभूतियुक्त,
कान्तियुक्त
और शक्तियुक्त
वस्तु है, उसे
तुम मेरे तेज
के एक अंश से
ही उत्पन्न
हुए समझो
(१०.४१) हे
अर्जुन,
तुन्हे बहुत
जानने की क्या
अवश्यकता है?
मैं अपने तेज
अर्थात
योगमाय के एक
अंशमात्र से
ही सम्पूर्ण
जगत को धारण
करके स्त्य्ज्त
रहता हूं
(१०.४२) CHAPTER 11 अर्जुन
बोले- आप्ने
मुझपर कृपा करके
जिस परम
गोपनीय
अध्यात्मतत्व
को कहा, उससे
मेर भ्रम नष्ट
हो गया
हैं.(११.१) हे
कमलनयन कृष्ण,
मैंने आपसे
प्राणियों की
उत्पत्ति और
प्रलय तथा
आपके अविनाशी
माहात्म्य को
विस्तारपूर्वक
सुना. (११.२) हे
परमेश्वर, आप
अपने को जैसा
कहते हैं, वह
ठीक है.
परन्तु हे पुरुषोत्तम,
मैं आपके
ईश्वरीयरूप
को अपनी आंखों
से देखना
चाहता हूं
(११.३) हे
प्रभो, यदि आप
समझें कि मेरे
द्वारा आपका विश्वरूप
देखा जाना
संभव है, तो हे
योगेश्वर, आप
अपने दिव्य
विराटरूप का
दर्शन
दें.(११.४) श्री
भगवान बोले—हे
पार्थ, अब तुम
मेरे अनेक तरह
के और अनेक
रंग तथा आकृति
वाले हे
भारत, मुझ में
आदित्यों,
वसुओं,
रुद्रॊं तथा
अश्विनी
कुमारों और
मरुद्गणों
को देखो, तथा
और भी बहुत-से
पहले न देखे
हुए
आश्चर्यजनक
रूपों को भी
देखो. (११.६) हे
अर्जुन, अब
मेरे शरीर में
एक ही जगह पर
स्थित हुए चर
और अच्र सहित
सारे जगत को,
तथा और जो कुछ
देखना चहते हो
उसे भी देख
लो.(११.७) परन्तु
तुम अपनी इन
आखों से नहीं
देख सकते हे, इसलिए
मेरी
योगशक्ति को
देखने के लिए
मैं तुम्हें
दिव्य दृष्टि
प्रदान करता
हूं (११.८) संजय
बोले—हे राजन,
महायोगेश्वर
हरि ने ऎसा
कहकर अर्जुन को
अपने
ऎश्चर्ययुक्त
परम विराट्रूप
का दर्शन
कराया.(११.९) अर्जुन
ने भगवान
श्रीकृष्ण के
अनेक मुख और
नेत्रों वाले,
अनेक अद्भुत
दृश्यवाले,
अनेक दिव्य
आभूषणों से
युक्त, बहुत
सारे दिव्य
शस्त्रों को
हाथों मे लिए
हुए, दिव्य
माला और
वस्त्रों को
धारण किए हुए ,
दिव्य गन्ध का
लेपन किये
हुए, समस्त प्रकार
के आश्चर्यों
से युक्त,
अनन्त विराट्स्वरूप
का दर्श्न
किया (११;१०-११) आकाश
में हजारों
सुर्यों का एक
साथ उदय होने
से उत्पन्न
प्रकाश भी उस
विश्वरूप
परमात्मा के
प्रकाश के
जैसा शायद ही
हो(११.१२) उस
समय्पाण्डुपुत्र
अर्जुन ने
देवों के देव श्रीकृष्ण
भगवान के
दिव्य शरीर
में – अनेक
प्रकार के
विभागों में
विभक्त
पर्न्तु एक ही
जगह एकत्रित –
सम्पूर्ण जगत
को देखा (११.१३) भगवान
के विराट्रूप
को देखकर)
अर्जुन बहुत
चकित हुए और आश्चर्यके
कारण उनका
शरीर पुलकित
हो गया, अर्जुन ने हाथ
जोड्कर
विश्वरूप देव
को (श्रद्धा
और भक्ति
सहित) सिर
झुकाकर
प्रणाम करके कहा
(११.१४) अर्जुन
बोले—हे देव,
मैं आपके शरीर
में समस्त
देवताओं को, प्राणियों
के अनेक
समुदायों को,
कमल पर बैठे
हुए
ब्रह्माजी,
महादेवजी,
समस्त ऋषिगण
और दिव्य
सर्पों को देख
रहा हूं (११.१५) हे
विश्वेश्वर,
आपको मैं अनेक
हाथों, पेटों,
मुखों और
नेत्रों से
युक्त, तथा सब
ओर से अनन्त रूपों
वाला देखता
हूं, हे
विश्वरूप, मैं
आपके न अन्त
को देखता हूं,
न मध्य को न
आदि को ही
(११.१६) मै
आपके मुकुट,
गदा और चक्र
धारण किये सब
ओर से
प्रकाशमान तेज
के पुंज जैसा,
प्रज्व्लित
अग्नि और
सूर्य के समान
ज्योति वाले,
तथा नेत्रों
द्वारा देखने में
अत्यन्त कठिन
और अपरिमित
रूप को देख
रहा हूं (११.१७) आप
ही जानने
योग्य
अक्षरातीत
परब्रह्म
परमात्मा हैं,
आप ही इस
विश्व के परम
आश्चर्य हैं,
आप ही सनातन
धर्म के रक्षक
हैं, आप ही
अविनाशी
सनातन पुरुष
हैं , ऎसा मेरा
मत है (११.१८) मैं
आपको आदि मध्य
और अन्त से
रहित तथा
अनन्त प्रभावली
और अनन्त
भुजाओं वाले
तथा चन्द्रमा
तथा सूर्य की
तरह नेत्रों
वाले औए
प्रज्वलित
अग्निरूपी
मुखों वाले तथा
अपने तेज से
विश्व के
तपाते हुए देख
रहा हूं (११.१९) हे
महात्मन,
स्वर्ग और
पथ्वी के बीच
का यह संपूर्ण
आकाश, तथा
समस्त दिषाएं
केवल आपसे ही
व्यापत है,
आपके इस
अलौकिक और
भयंकर रूप
देखकर तीनों
लोक भयभीत हो
रहे हैं,(११.२०) समस्त
देवताओं के
समूह आप में
प्रवेश कर रहे
हैं और कई एक
भयभीत होकर
हाथ जोडे हुए
आपके नाम और
गुनों का
कीर्तन कर रहे
हैं, महर्षियों
और सिद्धों के
समुदाय
’कल्याण हो,
कल्याण हो
कहकर उत्तम
स्तोत्रों
द्वारा आपकी
स्तुति कर रहे
हैं (११.२१) रुद्र,
आदित्य, वसु,
साध्य,
अश्विनी
कुमार, मरुत,
पितृ,
गन्धर्व,
यक्ष, असुर और
सिद्धगण – ये
सब चकित होकर
आपको देख रहे
हैं (११.२२) हे
महाबाहो, आपके
बहुत भुजाओं,
जंघाओं तथा
पैरों वाले,
बहुत पेटों
तथा बहुत-सी
भयंकर दाढों वाले
महान रूप को
देखकर सब
प्राणी तथा
मैं भी व्याकुल
हो रहा हूं
(११.२३) हे
विष्णु, आकाश
को छूते हुए
देदीप्यमान,
अनेक रंगों
वाले पैले हुए
मुख और प्रकाशमान
विशाल
नेत्रों से
युक्त आपको
देखकर मैं
भयभीत हो रहा
हूं, तथा धीरज
और शान्ति
नहीं पा रहा
हूं(११.२४) आपके
विकराल दाढों
वाले, प्रलय
की अग्नि के
समान
प्रज्वलित
मुखों को
देखकर मुझे न
तो दिषाओं का
ज्ञान हो रहा
है और न
शान्ति ही मिल
रही है, इसलिए
हे देवेश, हे जगत
के पालन कर्ता
आप प्रसन्न हो
(११.२५) राजाओं
के समुदाय –
भीष्म, द्रोण,
कर्ण और हमारे
पक्ष के
प्रधान योद्धागण
– सहित
धृतराष्ट्र
के सभी पुत्र
बडी तेजी से
आपके विकराल
दाढॊं वाले
भयानक मुखों
में प्रवेश कर
रहें हैं.
उनमें किछ
ऊर्णित शिरों
सहित आपके
दांतों के बीच
में फंसे हुए
दीख रहेहैं
(११.२६-२७) जैसे
नदियों के
बह्त सारे जल
के प्रवाह
स्वाभाविक
रूप से समुद्र
की ओर जाते है,
वैसे ही शूरवीर
भी आपके
प्रज्वलित
मुखों में
प्रवेश कर रहें
हैं (११.२८) जैसे
पतंगे अपने
नाश के लिए
प्रज्वलित
अग्नि में बडे
वेग से दौड्ते
हुए प्रवेश
करते हैं.
वैसे ही ये सब
लोग भी अपने नाश
के लिए आपके
मुखों में बडे
वेग दौड्ते
हिए प्रवेश कर
रहें हैं
(११.२९) आप
सब लोकों को
प्रज्वलित
मुखों द्वारा
ग्रास करते
हुए सब ओर से
चाट रहें हैं
और हे विष्णु, आपका
उग्र प्रकाश
अप्ने तेजसे
सम्पूर्ण जगत
को परिपूर्ण
करके तपा रहा
है (११.३०) (कृपया)
मुझे यह
बतायें कि
उग्ररूप वाले
आप कौन हैं? हे
देवों में
श्रेष्ठ, आपको
मेरा नमस्कार,
आप मुझेसे
प्रसन्न हों,
हे आदि पुरुष,
मैं आपको तत्व
से जानना
चाहता हूं,
क्योंकि मैं
आपका प्रयोजन
नहीं समझ पा
रहा हूं(११.३१) श्री
भगवान बोले –
मैं संपूर्ण
लोकों का नाश
करनेवाला
महाकाल हूं और
इस समय इन सब
लोगों का
संहार करने के
लिए यहां आया
हूं, तुम्हारे
प्रतिपक्ष
में जो योद्द्गा
लोग खडे हैं,
वे सब
तुम्हारे
तुद्ध के बिना
भी जिन्दा
नहीं रहेंगे
(११.३२) अतःतुम
युद्द्ध के
लिए तैयार हो
जाओ और यश को प्राप्त
करो, शत्रुओं
को जीतकर
संपन्न राज्य भोगो.
ये सब योद्धा
पहले से ही
मेरे द्वारा
मारे जा चुके
हैं ** हे
अर्जुन, तुम
केवल निमित्त
मात्र ही हो
(११.३३) द्रोण,
भीष्म,
जयद्रथ, कर्ण
तथा और भी
बहुत सारे
मेरे द्वारा
मारे हुऎ वीर
योद्धाओं को
तुम मारो. भय
मत करो,
निःसन्देह
तुम युद्ध में
शत्रुओं को जीतोगे,
इसलिए युद्ध
करो (११.३४) संजय
बोले – भगवान
कृष्ण के इस
वचन को सुन्कर
मुकुटधारी और
अत्यन्त
भयभीत अर्जुन
ने हाथ जोडकर
कंपते हुए
नमस्कार करके
गद्गद वानी
से श्री कृष्ण
से कहा (११.३५) अर्जुन
बोले – हे
अन्तर्यामी
भगवन, यह सब
उचित ही है कि
आपके ( नाम ,गुण,
लीला आदि का)
कीर्तन से जगत
हर्षित होकर
अनुराग को
प्राप्त हो
रहा है, भयभीत
राक्षस लोग
सभी ओर भाग
रहे हैं, तथा
सिद्धगण आपको
नमस्कार कर
रहे हैं (११.३६) हे
महात्मा, वे
आपको – जो
ब्रह्माजी से
बडे और
आदिकर्ता है –
कैसे नमस्कार
न करें ?
क्योंकि हे
अनन्त, हे देवेश,
हे जगत के
पालन कर्ता **
जो सत,असत और
इन दोनॊं से
परे परब्रह्म
है वह आप ही
हैं.(११.३७) आप
ही आदिदेव और
सनातन पुरुष
हैं, आप ही जगत
के आधार, सबको
जानने योग्य
तथा परमधाम हैं,
हे अनन्तरूप,
यह सारा संसार
आपसे ही
व्यापत है.(११.३८) आप
ही वायु,
यमराज, अग्नि,
वरुन,
चन्द्रमा,
प्रजापति
ब्रह्मा और
ब्रह्मा के
पिता भी हैं.
आपको हमारा
सहस्र बार
नमस्कार,
नमस्कार और
फिर बारम्बार
नमस्कार
है.(११.३९) हे
अनन्त समर्थ
वाले भगवन,
आपको आगेसे और
पीछेसे भी
नमस्कार. हे
सर्वात्मन,
आपको सब ओर से
नमस्कार. आप
अनन्त साहसी
और शक्तिशाली
हैं, सबमें
व्याप्त रहने
के कारण सब
कुछ, तथा सब जगह
आप ही
हैं(११.४०) हे
भगवन, आपकी
महिमा को न
जानने के
कारण, आपको सखा
मानकर, प्रेम
से अथवा
लापरवाही से
मैंने “ हे
कृष्ण, हे यादव,
हे सखे “ आदि
कहा है,(११.४१) और
हे अच्युत, आप
मेरे द्वारा
हंसी में,
खेलने, सोने,
बैठने और भोजन
के समय – अकेले
में अथवा
दूसरे के
सामने भी – जो
अपमानित किए
गए हैं, उन सब
के लिए हे
अपरिमित भगवन,
मैं आपसे
क्षमा मांगता
हूं (११.४२) आप
इस चराचर जगत
के पिता और सर्वश्रेष्ठ
पूजनीय गुरु
हैं, हे अतिशय
प्रभाववाले,
तीनों लोकों
में आपके जैसा
कोई भी नहीं
है, फिर आप से
बडा कौन है ?
(११.४३) इसलिए
हे भगवन, मैं
आपके चरणों
में साष्टांग
प्रणाम करके
आपको प्रसन्न
करने के लिए
प्रार्थना
करता हूं, हे
देव, जैसे
पिता पुत्र
के, मित्र
अपने मित्र के
और पति पत्नी
के अपत्राध को
क्षमा करता
है, वैसे ही आप
भी मेरे
अपराधों को क्षमा
कीजिए (११.४४) मैं
आपके पेहले
कभी नहीं देखे
जाने वाले इस
रूप को देखकर हर्षित
हो रहा हूं,
तथा भय से मेरा
मन अत्यन्त
व्याकुल भी हो
रहा है, अतः हे देवेश,
हे जगत के आश्रय,
आप प्रसन्न
हों और मुझे
अपना(चतुर्भुज(
देवरूप
दिखायें
(११.४५) मैं
आपको मुकुट
धारण किये हुए
तथा गदा और
चक्र हाथ में
लिए हुए देखना
चाहता हूं,
इसलिए हे विश्वरूप,
हे सहस्रबाहो,
आप अपने
चतुर्भुजरूप
में प्रकट
हों. (११.४६) श्री
भ्गवान बोले –
हे अर्जुन,
तुम से
प्रसन्न होकर
मैंने – अपनी
योगमाया बल से
– अपना यह परम,
तेजोमय,
विराट, अनन्त
और मूलरूप तुम्हे
दिखाया है,
जिसे तुम से
पहले किसी ने
नहीं देखा
है.(११.४७) हे
कुरुप्रवीर,
तुम्हारे
सिवा इस
मनुष्य;ओक में
किसी और दूसरे
के द्वारा – न
वेदों पढ्ने
से, न दान से, न
उग्र तपसे और
न वैदिक
क्रियाओं
द्वारा ही –
मैं इस रूप
में देखा जा
सका हूं (११.४९) मेरे
इस विकराल रूप
को देखकर
तुम्हे
व्याकुल और
विमूढ नहीं
होना चाहिए,
निर्भय और
प्रसन्नचित्त
होकर अब तुम
मेरे ( शंख,
चक्र, गदा और
पद्म धारण किए
हुए)
चतुर्भुजरूप
को देखो (११.४९) संजय
बोले- भगवान
श्रीकृष्ण ने
अर्जुन से ऎसा
कहकर उसे अपना
चतुर्भुज्रूप
दिखाया और फिर
सुहावना
मनुष्यरूप
धारणकर
महात्मा
कृष्ण ने भयभीत
अर्जुन को
आश्वासन
दिया.(११.५०) अर्जुन
बोले- हे
जनार्दन, आपके
इस सुन्दर
मनुष्यरूप को
देखकर अब मैं
शान्तचित
होकर अपनी
स्वाभाविक
स्थिति को
प्राप्त हो
गया हूं(११.५१) श्रीभगवान
बोले- मेरे
जिस
चतुर्भुजरूप
को तुम ने
देखा है, उसका
दर्शन बडा ही
दुर्लभ है.
देवतागण भी सद
इस रूप का
दर्शन की
आकांक्षा
करते रहते
हैं.(११.५२) उस
चतुर्भुजरूप
में – जैसा तुम
ने देखा है –
मैं न वेदों
के पढने से, न
तप करने से, न
दान से और न
यज्ञ करने से
ही देखा जा
सकता
हूं.(११.५३) परन्तु हे
परन्तप
अर्जुन,केवल
अनन्य भक्ति
के द्वारा ही
मैं उस
चतुर्भुजरूप
में देखा,
तत्व से जाना,
तथा प्राप्त
भी किया जा
सकता हूं
(११.५४) ** हे
अर्जुन, जो मनुष्य
केवल मेरे ही
लिए अपने
सम्पूर्ण
कर्तव्य कर्म
को करता है,
मुझ पर ही
भरोसा रखता
है, मेरा भक्त
है, तथा जो
आसक्ति रहित
और निर्वैर
है, वही मुझे
प्राप्त करता
हूं (११.५५) CHAPTER 12 अर्जुन
बोले -
जो भक्त सतत
युक्त होकर पूर्वोक्त
प्रकार से (आपके
इस
कृष्णस्व्रूप
सगुण साकार
रूप की) उपासना
करते हैं और
जो भक्त जन मन
और वाणी से
परे (अव्यक्त)
अक्षर ब्रह्म
को निराकार
मानकर उसकी उपासना
करते हैं, उन
दोनों में कौन
उत्तम योगी है.
(१२.१) श्री
भगवान बोले –
जो भक्त जन
मुझे मॆं मन
को एकाग्र
करके नित्ययुक्त
होकर परम
श्रद्धा और
भक्ति से
युक्त होकर
मुझ परब्रह्म
परमॆश्वर के (
कष्णस्वरूप)
सगुण रूप की
उपासना करते
हैं, वे मेरे
मत से श्रेष्ठ
हैं.(१२.२) परन्तु
जो मनुष्य
अक्षर,
अनिर्वचनीय,
अव्यक्त,
सर्वगत,
अचिन्त्य, अपरिवर्तन्शील,
अचल और सनातन
ब्रहम की
उपासना
इन्द्रियों
को अच्छी तरह
नियमित करके,
सभी में समभाव
होकर,
भूतमात्र के
हित में रत
रहकर करते
हैं, वे भी
मिझे प्राप्त
करते
हैं(१२.३-४) परन्तु
उन अव्यक्त
में आसक्त हुऎ
चित वाले मनुष्यों
को (साधना में)
क्लेश अधिक
होता है,
क्योंकि
देहधारियों
द्वारा
अव्यक्त की गति
कठिनाई
पूर्वक
प्राप्त होती
है (१२.५) परन्तु
हे अर्जुन, जो
भक्त मुझको ही
अपना परम लक्ष्य़
मानते हुए सभी
कर्मों को
मुझे अर्पण करके
अनन्य भक्ति
के द्वारा
मेरे साकार
रूप का ध्यान
करते हैं, ऎसे
भक्तों का –
जिनका चित्त
मेरे सगुण
स्वरूप में
स्थिर रहता
है- मैं शिघ्र
ही
मृत्युरूपी
संसार से
उद्धार कर
देता हूं
(१२.६-७) तुम
मुझ में ही
अपना मन लगाओ
और बुद्धिसे
मेरा ही
चिन्तन करो,
इसके उपरान्त
निःसंदेह तुम
मुझ में ही
निवास करोगे.
(१२.८) हे
धनंजय, यदि
तुम अपने मन
को मुझ में
स्थिर करने
में असमर्थ
हो, तो तुम
(पूजा, पाठ आदि
के) अभ्यास के
द्वारा मुझे
प्राप्त करने
की इच्छा से
प्रयत्न
करो.(१२.९) यदि
तुम अभ्यास
करने में
असमर्थ हो तो
अपने कर्तव्य
कर्मों का
पालन करो,
कर्मों को
मेरे लिए करते
हुए तुम मेरी
प्राप्तिरूपी
सिद्धि पाओगे.
(१२.१०) यदि
तुम इसे भी
असमर्थ हो तो
मुझपर आश्रित
होकर, मन पर
विजय प्राप्त
कर, सब कर्मों
के फल की आशा
त्याग
करो(१२.११) **
मर्म जाने
बिना अभ्यास
करने से
शास्त्रों का ज्ञान
श्रेष्ठ है,
ज्ञान से
परमात्मा के
स्वरूप का
ध्यान
श्रेष्ठ हैं,
और सब
कर्मों के फल
के आसक्ति का
त्याग ध्यान
से भी श्रेष्ठ
है, क्योंकि
त्याग से
तत्काल परम
शान्ति की
प्राप्ति
होती है (१२.१२) जो
मनुष्य सभी
प्राणियॊं से
द्वेषरहितह ,
दयालु है,
ममता और
अहंकार से
रहित है, सुख
और दुःख में
सम, क्षमाशील
और संतुष्ट
है, जो अपने मन
और इन्द्रियों
को वश मे करके
मुझ में
दृढनिश्चय
होकर अपने मन
और बुद्धि को
मुझे अर्पण
करके सदा
हमारा ही
ध्यान करता
है, ऎसा भक्त
मुझे प्रिय
है.(१२.१३-१४) जिससे
कोई व्यक्ति
उद्वेग
प्राप्त नहीं
करता, तथा जो
स्वयं भी किसी
से उद्विग्न
नहीं होता, जो
सुख, ईर्ष्य,
भय और उद्वेग
से मुक्त है,
वह मुझे प्रिय
है(१२.१५) जो
आकांक्षरहित
शुद्ध, कुशल,
पक्षपात से
रहित, सुखी और
सभी कर्मों
में अनासक्त
है, वैसा भक्त
मुझे प्रिय
है. (१२;१६) जो
न किसी से
द्वेष करता
है, न सुख में
हर्षित होता
है और न दुःख
में शोक करता
है, जो कामना
रहित है, तथा
शुभ और अशुभ
दोनों कर्मों
के फल का
त्याग करने
वाला है, वैसा
मनुष्य मुझे
प्रिय है
(१२.१७) जो
शत्रु और
मित्र, मान और
अपमान, सर्दि
और गर्मि तथा
सुख और दुःख
में सम है,जो
आसक्ति रहित है,
जिसे निन्दा
और स्तुति
दोनों बराबर
है, जो कम
बोलता है, जो
कुछ हो उसी
में संतुष्ट
है, जिसे स्थान
में आसक्ति
नहीं है, तथा
जिसकी बुद्धि
स्थिर है, ऎसा
भक्त मुझे
प्रिय
है(१२.१८-१९) जो
श्रद्धवान
भक्त मुझे ही
अपना परम
लक्ष्य मानकर
उपरॊक्त
धर्ममय अमृत जीवन
जीते है, वे तो
मुझे बहुत ही
प्रिय है
(१२.२०) CHAPTER 13 १३. क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगः श्री
भगवान बोले –
हे
कुन्तीनन्दन
अर्जुन, इस
शरीर को
क्षेत्र कहते
हैं, उसे
ज्ञानी लोग
क्षेत्रज्ञ
कहते हैं.(१३.१) हे
भरतवंशी
अर्जुन, मुझे
तुम सभी
क्षेत्रों का
क्षेत्रज्ञ
जानो, मेरे मत
से क्षेत्र और
क्षेत्रज्ञ
का ज्ञान ही
तत्वज्ञान
है.(१३.२) क्षेत्र
क्या है, कैसा
है, इनके स्रोत
कहां है, इनकी
विभूतियां
क्या है, उनकी शक्तियां
क्या है, वह सब
संक्षेप में
सुनो (१३.३) क्षेत्र
औत
क्षेत्रज्ञ
के विषय में
ऋषियों द्वारा
बहुत प्रकार
से बताया गया
है, तथा नन प्रकार
के
वेदमन्त्रों
और
ब्रह्मसूत्र
के युक्तियुक्त
पदों द्वारा
भी
विस्तारपूर्वक
कहा गया है
(१३.४) अव्यक्त
अर्थात आदि
प्रकृति,
महतत्व,
अहंकार तत्व,
पांच महाभूत,
दस इन्द्रियं,
मन, पांचों ज्ञानेंद्रिय
के पांच विषय,
इच्छा, द्वेष,
सुख, दुःख,
स्थूल शरीर,च
तना, तथा
धैर्य – इस
प्रकार
विभूतियों के
सहित क्षेत्र
का वर्णन
संक्षॆप से
कहा गया है (१३.५-६) अपने
में मान और
दिखावे का न
होना, अहिंसा,
क्षमा, सरलता,
गुरु, की सेवा,
बाहर-भीतर की
शुद्धि, स्थिरता,
मन का वश में
होना,
इन्द्रियों
के विषय से
वैराग्य,
अहंकार का
अभाव, तथा
जन्म, वृद्धावस्था,
रोग मृत्यु
में दुःख्रूप
दोषों को बारबार
देखना(१३.७-८) आसक्तिरहित
होना, पुत्र,
स्त्री घर आदि
में ममता न होना,
प्रिय और
अप्रिय की
प्राप्ति में
सम रहना,
मुझमें
अनन्ययोग के
द्वारा अटल
भक्ति का होना,
एकान्त में
रहना, संसारी
मनुष्यों के
समाज से
अरुचि,
आध्यात्मज्ञान
की
प्राप्तिमें
संलग्न रहना
और तत्वज्ञान
द्वारा
सर्वत्र
परमात्मा को
ही देखना – यह
सब ज्ञान
(प्राप्ति के
साधन) है और जो
इसके विपरीत
है, वह अज्ञान
कहा गया
है.(१३.९-११) मैं
तुम्हे जानने
योग्य वस्तु
अर्थात परमात्मा,
के बारे में
अच्छी तरह
कहूंगा, जिसे
जानकर
मनुष्य
मुक्ति को
प्राप्त
करनाहै.** वह
अनादि
परब्रह्म परमात्मा
न सत (अर्थात
अक्षर या
अविनाशी) है, न असत
(अर्थात क्षर या
नाशवान) है. (वह
इन दोनों से
परे,
अक्ष्रातीत
है).(१३.१२) उसके
हाथ और पैर सब
जगह है, उसके
नेत्र, सिर,
मुख और कान भी
सब जगह हैं
क्योंकि वह
सर्वव्यापी है.(१३.१३) वह
(प्राकृत)
इन्द्रियों
के बिना भी
(सूक्ष्मैन्द्रियों
द्वारा) सभी
विषयों का
अनुभव करता
है, संपूर्ण
संसार का
पालन-पोषण करते
हुए भी
आसक्तिरहित
है, तथा
प्रकृति के गुणों
से रहित होते
हुए भी (
जीवरूप धारण
कर ) गुणों क
भोक्ता
है,(१३.१४) सभी
चर और अचर
भूतों के बाहर
और भीतर भी
वहीं है.
सूक्ष्महोने
के कारण वह (
मनुष्य की
इन्द्रियॊं
द्वारा देखा
या ) जाना नहीं
जा सकता है,
तथा वह (
सर्वव्यापी
होने कारण)
अत्यन्त दूर
भी है, और समीप
भी.(१३.१५) वह
एक होते हुए
भी प्राणीरूप
में अनेक
दिखाई देता
है. वह ज्ञान
का विषय है.
तथा सभी भूतों
को उत्पन्न
करने वाला, पालन-पोषण
करने वाला और
संहार कर्ता
भी वही है(१३.१६) वह
सभी
ज्योतियों का
स्रोत,
अन्धकार से
परे है, वही
ज्ञान है,
ज्ञान का विषय
है और वह
तारतम्य विद्या
द्वरा जाना जा
सकता है, वह
(ईश्वर रूप से)सबके
अन्तःकरण में
रहता है.(१३.१७) इस
प्रकार (मेरे
द्वारा)
सृष्टि, तत्वज्ञान
और जानने
योग्य
परमात्मा के
विषय में
संक्षेप से
कहा गया. इसे
तत्व जानकर
मेरा भक्त
मेरे स्वरूप
को प्राप्त
करता है.(१३.१८) प्रकृति
और पुरुष, इन
दोनों को तुम
अनादि जानो.
सभी
विभूतियां और
गुण प्रकृति
से उत्पन्न होते
हैं. शरीर और
इन्द्रियों
की उत्पत्ति भी
प्रकृति से
होती है
सुख-दुःख का
अनुभव पुरुष
(अर्थात चेतन
शक्ति) के
द्वारा होता
है. (१३.१९-२०) **प्रकृति
के साथ मिलकर
पुरुष
प्रकृति के
गुणों को
भोगता है,
प्रकृति के
गुणों से
संयोग के कारण
ही पुरुष (जीव
बनकर) अच्छी
और बुरी
योनियों में
जन्म लेता है(
१३.२१) यह
परमपुरुष
(अर्थात
परमात्मा) ही (
जीवरूप से ) इस
शरीर में
साक्षि,
सम्मति देने
वाला, पालन कर्ता,
भोक्ता,
महेश्वर,
परमात्मा आदि
कहा जाता
है.(१३.२२) इस
पुरुष को और
गुणों के सहित
प्रकृति को जो
मनुष्य
यथार्थरूप से
जान लेता है,
वह सभी कर्तव्यकर्म
करता हुआ भी
पुनर्जन्मको
नहीं प्राप्त
करता है.(१३.२३) कोई
साधक ध्यान के
अभ्यास से,
कोई
सांख्ययोग के
द्वारा, तथा
कोई कर्मयोग
के द्वारा
(शुद्ध किये
हुए) मन और
बुद्धि से
अपने
अन्तःकरण में
परमात्मा का
दर्शन करता
है.(१३.२४) परन्तु
दूसरे
परमात्मा को
इस प्रकार
(ध्यान्योग,
संख्ययोग,
कर्मयोग आदि
द्वारा) नहीं
जानते. वे
केवल शास्त्र
और
महापुरुषों
के
वचनों के अनुसार
उपासना करते
हैं. वे भी
मृत्युरूपी
संसार सागर को
श्रद्धारूपी
नौका द्वारा
निःसंदेह पार
कर जाते हैं
(१३.२५) हे
भरतश्रेष्ठ
अर्जुन, चर और
अचर जितने
प्राणि पैदा
होते हैं, उन सबको
तुम प्रकृति
और पुरुष
(अर्थात
क्शेत्र और क्षेत्रज्ञ)
के संयोग से
ही उत्पन्न
हुए जानो (१३.२६) **जो
मनुष्य
अविनाशी
परमेश्वर को
ही समस्त नश्वर
प्राणियों
में समान भाव
से स्थित
देखता है, वही
वास्तव में
ईश्वर का
दर्शन करता
है. (१३.२८) जो
मनुष्य सभी
कर्मों को प्रकृति
के गुणों
द्वारा ही
किये जाते है
और अपने आपको
(तथा आत्मा को
भी) अकर्ता
मानता है, वास्तव
में वही
ज्ञानी है
(१३.२९) **
जिस क्षण साधक
सभी
प्राणियों को,
तथा उनके अलग-अलग
विचारों को
एकमात्र
परब्रह्म
परमात्मा से
ही उत्पन्न
समझ जाता है,
उसी क्षण वह
परब्रह्म
परमात्मा को
प्राप्त कर
लेता है.(१३.३०) हे
अर्जुन,
अविनाशी
परमात्मा –
अनादि और
विकार रहित
होने के कारण –
शरीर में वास
करता हुआ भी न
कुछ करता है, और
न देह से
लिप्त होता है
(१३.३१) जैसे
सर्वव्यापी
आकाश अत्यन्त
सूक्ष्म होने
के कारण किसी
विकार से
दूषित नहीं होता,
वैसे ही
(सर्वव्यापी)
आत्मा सभी देह
के अन्दर रहते
हे भी ( देह के)
विकारों से
दूषित नहीं
होता(१३.३२) हे
अर्जु को
चेतना प्रदान
करता है. जैसे
एक ही सूर्य
सारे जगत को
प्रकाश कर
देता है, वैसे
ही एक
परमात्मा ने
सम्पूर्ण
ब्र्ह्माण्ड
को चेतना
प्रदान करता
है. (१३.३३) इस
प्रकार
तत्वज्ञान
द्वारा
क्षेत्र और
क्षेत्रज्ञ
के भेद को, तथा
जीव के
प्रकृति के
विकारों से
मुक्त होने के
उपाय को, जो
लोग जान लेते
हैं, वे
परब्रह्म
परमात्मा को
प्राप्त होते हैं.
(१३.३४) CHAPTER 14 १४. गुणत्रयविभागयोगः श्रीभगवान
बोले – समस्त
ज्ञानों में
उत्तम उस परम
ज्ञान को मैं
फिर से कहूंगा,
जिसे जानकर सब
साधकों ने इस
संसार से मुक्त
होकर परम
सिद्धि
प्राप्त की
है.(१४.१) इस
ज्ञान का
आश्रय लेकर
मेरे स्वरूप
को प्राप्त
मनुष्य
सृष्टि के आदि
में
पुनर्जन्म
नहीं लेते,
तथा प्रलयकाल
में भी व्यथित
नहीं होते हैं.
(१४.२) हे
अर्जुन, मेरी
महद
ब्रह्मरूप
प्रकृति सभी प्राणियों
की योनि है,
जिस मैं
चेतनारूप बीज
डालकर (जड और
चेतन के संयोग
से) समस्त
भूतों की उत्पत्ति
करता हूं (१४.३) हे
कुन्तीपुत्र,
सभी योनियॊं
में जितने
शरीर पैदा
होते हैं,
प्रकृति उन सब
की माता है और मैं
चेतना
देनेवाला
पिता हूं (१४.४) **हे
अर्जुन,
प्रकृति से
उत्पन्न
तीनों गुणरूपी
रस्सी – सत्व,
रजस और तमस –
अविनाशी जीव
को देह के साथ
बांध देते
है.(१४.५) हे
पापरहित
अर्जुन, इनमें
सतोगुण
निर्मल होने
के कारण
विकाररहित और
ज्ञान देने
वाला है. यह
जीव को सुख और ज्ञान
की आसक्ति से
बांधता है.
(१४.६) हे
अर्जुन,
रजोगुण को
रागस्वरूप
समझो, जिससे विषय-भॊग
की प्यास
(तृष्णा) और
आसक्ति
उत्पन्न होती
है. यह
जीवात्मा को
कर्मफल की
आसक्ति से बांधता
है. (१४.७) और
हे भारत, सब
जीवों को भ्रम
में डालने
वाले तमो गुण
को अज्ञान से
उत्पन्न जानो,
तमोगुण
लापरवाही, आलस
और निद्रा के द्वारा
जीव को बांधता
है.(१४.८) हे
अर्जुन,
सतोगुण सुख
में और रजोगुण
कर्म में
आसक्त करवाता
है, तथा
तमोगुण ज्ञान
को ढ्ककर जीव
को लापरवाह
बना देता है
(१४.९) हे
अर्जुन, कभी
रजोगुण और
तमोगुण को
दबाकर
सतोगुण, कभी
सतोगुण और
तमोगुण को
दबाकर रजोगुण,
तथा कभी
सतोगुण और
रजोगुण को
दबाकर तमोगुण
बढता है,(१४.१०) जब
ज्ञान का
प्रकाश इस देह
के सभी
द्वारों (अर्थात
समस्त
इन्द्रियों)
को प्रकाशित
करता है (
अर्थात जब
जीवात्मा के
अन्तःकरण में
ज्ञान के
प्रकाश का उदय
होता है) तब
सतोगुण को बढा
हुआ जानना
चहिए(१४.११) हे
भरत-श्रेष्ठ
रजोगुण के
बढनेपर लोभ,
सक्रियता,
सकाम कर्म,
बेचैनी, लालसा
आदि उत्पन्न
होते है(१४.१२) हे
कुरुनन्दन,
तमोगुण के
बढनेपर
अज्ञान, निष्क्रियता,
लापरवाही,
भ्रम आदि
उत्पन्न होते
है. (१४.१३) जिस
समय सतोगुण
बढा हो, उस समय
यदि मनुष्य
मरता है, तब
जीव उत्तम
कर्म करने
वालों के
निर्मल लोक
अर्थात
स्वर्ग को
जाता है. (१४.१४) जिस
समय रजोगुण
बढा हो, उस समय
यदि मनुष्य
मरता है, तब वह
कर्मों में
आसक्ति वाले
मनुष्यों में
जन्म लेता है.
तमोगुण की
वृद्धि के समय
मरने वाला
मनुष्य पशु
आदि
मूढयोनियों
में जन्म लेता
है (१४.१५) सात्विक
कर्म का फल
शुभ और निर्मल
कहा गया है, राजसिक
कर्म का फल
दुःख और
तामसिक कर्म
का फल अज्ञान
कहा गया
है.(१४.१६) सत्वगुण
से ज्ञान,
रजोगुण से
लोभ, तमोगुण
से लापरवाही,
भ्रम, और
अज्ञान
उत्पन्न होते
हैं.(१४.१७) सत्वगुण
में स्थित व्यक्ति
उत्तम लोकों
को जाते हैं,
रजस व्यक्ति
मनुष्ययोनि
है और तमोगुण
की हीन
प्रवृत्तियों
में स्थित
तामस मनुष्य
नीचयोनियों
में जन्म लेता
है(१४.१८) जब
विवेकी
मनुष्य तीनों
गुणों के
अतिरिक्त किसी
अन्य को कर्ता
नहीं समझता
है, तथा गुणों
से परे मुझ
परमात्मा को
तत्व से जान
लेता है, उस
समय वह मेरे
स्वरूप
अर्थात सारूप्य
मुक्ति को
प्राप्त करता
है.(१४.१९) जब
मनुष्य देह की
उत्पत्ति के
कारण तथा देह
से उत्पन्न
तीनों गुणों
से परे हो
जाता है, तब वह मुक्ति
प्राप्तकर
जन्म,
वृद्धावस्था,और
मृत्यु के
दुःखों से
विमुक्त हो
जाता है (१४.२०) अर्जुन
बोले – हे
प्रभो, इन
तीनों गुणों
से अतीत
मनुष्य के क्या
लक्षण है?
उसका आचरण
कैसा होता है?
और मनुष्य इन
तीनों गुणों
से परे कैसे
हो सकता
है?(१४.२१) श्री
भगवान बोले-
हे अर्जुन, जो
मनुष्य तीनॊं गुणॊं
के कार्य –
ज्ञान,
सक्रियता और
भ्रम – में
बन्ध जाने पर
बुरा नहीं
मानता और उनसे
मुक्त होने पर
उनकी
आकांक्षा भी
नहीं करता है,
जो साक्षी के समान
रहकर गुणों के
द्वारा
विचलित नहीं
होता, तथा गुण
इ अपने-अपने
कार्य कर रहे
हैं ऎस समझकर
परमात्मा में
स्थिर रहता है
(१४.२२-२३) **जो
निरन्तर
आत्मभाव में
रहता है तथा
सुख-दुःख में
समान रहता है,
जिसके लिए
मिट्टी, पथ्थर
और सोना
बराबर
है, जो
धीर्है, जो
प्रिय-अप्र्य,
निन्दा-स्तुति,
मान –अपमान,
तथा शत्रु-
मित्र में
समान भव रखता
है और जो
संपूर्ण
कर्मों में
कर्तापन के
भाव से रहित
है – वह
गुणातीत कहा
जाता है.
(१४.२४-२५) ** जो मनुष्य
अनन्य भक्ति
से निरन्तर
मेरी उपासना करता
है, वह
प्रकृति के
तीनों गुणों
को पार करके
परब्रह्म
परमात्मा की
प्राप्ति के
योग्य हो जाता
है.(१४.२६) क्योंकि
मैं
(परब्रह्मा ) ही
अविनाशी
अक्षरब्रह्म,
शाश्वत धर्म,
तथा परम आनन्द
का स्रोत
हूं(१४.२७) CHAPTER 15 श्री
भगवान बोले –
इस सृष्टि को
एक सनातन पीपल
का वृक्ष कहा
गया है, अनन्त
ब्रह्माण्ड
जिसकी
शाखावों हैं,
तथा वेदमन्त्र
जिसके पत्ते
हैं, इस
सृष्टिरूपी वृक्षको
जो मनुष्य मूल
सहित(तत्व से)
जान लेता है,
वही वेदों का
जानने वाला
है.(१५.१) (मनुष्य
शरीररूपी)
वृक्ष की
शाखायें सभी
ओर फैली हुई
हैं, प्रकृति
के गुणरूपी जल
से इसकी
वृद्धि होती
है, विषयभोग
इसकी कोंपलें
हैं, इस वृक्ष
की (अहंकार और
इच्छारूपी )
जडें
पृथ्वीलोक
में कर्मबंधन
बनकर व्यापत
हैं.(१५.२) इस
मनुष्य
शरीररूपी
वृक्ष के
स्वरूप, आदि,
आधार तथा अन्त
का पता नहीं
है, इसलिए
मनुष्य इनकी
(अहंकार और
इच्छारूपी)
झ्डों को
ज्ञान और
वैराग्यरूपी
शस्त्र
द्वारा काटकर
ऎसा सोचते हुए
कि मैं उस
परमपुरुष की
शरण में हूं
जिससे ये सारी
सनातन
विभूतियां
व्यापत हैं,
उस परमतत्व की
खोज करे जिस
प्राप्त्कर
मनुष्य पुनः
संसार मेंवपस
नहीं
आते.(१५.३-४) जो
मन और मोह आदि
से निवृत हो
चुके हैं,
जिन्होंने
आसक्तिरूपी
दोष को जीत
लिया है, जो
परमात्मा के
स्वरूप में
नित्य स्थित
हैं और जिनकी
कामनायें
पूर्णरूप से
समाप्त हो
चुकी हैं, तथा
जो सुख-दुःख
नामक
द्वन्द्वो से
विमुक्त हो
गये हैं ऎसे ज्ञानीजन
उस अविनाशी
परअमधाम को
प्राप्त करते
हैं.(१५.५) उस
स्वयंप्रकाशित
परमधाम को न
सूर्य प्रकाशित
कर सकता है, न
चंद्रमा और न
अग्नि ही, वही
मेरा परमधाम
है, जिसे
प्राप्त कर
मनुष्य इस
संसार में
नहीं लेते
हैं.(१५.६) **जीवलोक
में सनातन
जीवभूत
अर्थात
जीवात्मा मेरी
शक्ति का एक
अंश है, जो
प्रकृति में
स्थित मन सहित
छः
इन्द्रियों
को चेतना
प्रदान करता है.
(१५.७) ** जैसे
हवा फूल से
गन्ध के
निकाल्कर एक
स्थान से
दूसरे स्थान
में ले जाती
है, वैसे ही
जीवात्मा
मृत्यु के बाद
छः
इन्द्रियों
को एक शरीर से दूसरे
शरीर में ले
जाता है.(१५.८) यह
जीव कर्ण,
चक्षु,त्वचा,
रसना, घ्राण
और मन के द्वारा
विषयों का
सेवन करता है.
अज्ञानीजीवन जीव
को – एक शरीर से
दूसरे शरीर
में जाते हे,
अथवा शरीर में
स्थित गुणों
से समन्वित
होकर विषयों
के भोगते हुए –
नहीं देख
सकते, उसे
केवल
ज्ञान्चक्षु
वाले ही देख
सकते
हैं.(१५.९-१०) प्रयत्न
करने वाले
योगिजन अपने
अन्तःकरण में
स्थित
जीवात्मा को
देखते हैं,
अशुद्ध अन्तःकरण
वाले विवेकी
मनुष्य यत्न
करते हुए भी
आत्मा को नहीं
देख (या जान)
सकते हईं
(१५.११) जो
तेज सूर्य में
स्थित होकर
सारे संसार को
प्रकाशित
करता है, तथा
जो तेज
चन्द्रमा में
और अग्नि में
है, उसे तुम
मेरा ही तेज
जानो.(१५.१२) मैं
ही पृथ्वी में
प्रवेश करके
अपने ओज से
सभी भूतों को
धारण करता हूं
और रस देने
वाला चन्द्रमा
बनकर सभी
वनस्पतियॊं
को रस प्रदान
करता हूं
(१५.१३)
तथा
मैं ही सभी
प्राणियों के
अन्तःकरण में
स्थित हूं,
स्मृति,
ज्ञान, तथा
शंका समाधान
(विवेक या
समाधि द्वारा)
भी मुझ से ही
होता है,
समस्त वेदों
के द्वारा
जानने योग्य
वस्तु, वेदान्त
का कर्ता, तथा
वेदों का
जानने वाला भी
मई ही हूं
(१५.१६) लोक
में (परब्रह्म
के) क्षर
(नश्वर) पुरुष
और अक्षर
(अविनाशी)
पुरुष नामक दो
दिव्य रूप है,
समस्त जगत
क्षर पुरुष का
विस्तार है और
अक्षर पुरुष
(अर्थात
आत्मा)
अविनाशी
कहलाता है.
(१५.१६) परन्तु
इन दोनों से
परे एक तीसरा
उत्तम दिव्य
पुरुष है, जो
परब्रह्म
अर्थात
परमात्मा
कहलाता है, वह
तीनों लोकों
में प्रवेश
करके
ईश्व्ररूप से
सब का पालन-पोषण
करता है.(१५.१७) **क्योंकि
मैं, परब्रह्म
परमात्मा,
क्षर पुरुष (अर्थात
नारायण) और
अक्षर पुरुष
(अर्थात ब्रह्म)
दोनों से उत्तम
(अर्थात परे)
हूं, इसलिए
लोक और वेद
में पुरुषोत्तम
कहलाता
हूं.(१५.१८) हे
अर्जुन, मुझ
पुरुषोत्तम
को इस प्रकार
तत्वतः जानने
वाला ज्ञानी
(परा भाव से )
निरन्तर मुझ
परमेश्वर को
ही भजता
(अत्र्हात
भक्ति और प्रेम
करता )है. (१५.१९) हे
निष्पाप
अर्जुन, इस
प्रकार मेरे
द्वारा कहे
गये इस
गुह्यतम
शास्त्र को तत्वतः
जानकर मनुष्य
ज्ञानवान और
कृतार्थ हो जाता
है, (१५.२०) CHAPTER 16 श्री
भगवान बोले –
हे अर्जुन,
अभय, अन्तःकरण
की शुद्धि,
ज्ञनयोग में
दृढ स्थिति,
दान,इन्द्रियों
का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय,
तप, सरलता,
अहिंसा, सत्य,
क्रोढ का
अभाव, त्याग,
शान्ति, किसी
की निण्दा न
करना, दया,
विषयॊंसे न
ललचना,
कोमलता,
अकर्तव्य में
लज्जा, चपलता
का अभाव, तेज,
क्षमा, धैर्य,
शरीर की
शुद्धि, किसी
से वैर न करना,
गर्व का अभाव,
आदि दैवी
संपदा को
प्राप्त हुए
मनुष्य के
(छब्बीस)
लक्षण हैं
(१६.१-३) हे
पार्थ, दम्भ,
धमण्ड,
अभिमान,
क्रोध, कठॊर
वाणी और
अज्ञान- ये सब
असुरी सम्पदा –प्राप्त
मनुष्यों के
लक्षण
हैं.(१६.४) दैवी
सम्पदा मोक्ष
के लिए और
आसुरी सम्पदा
बन्धन के लिए
है, हे पाण्डव,
तुम शोक मत
करो, क्योंकि
तुम्हें दैवी सम्पदा
प्राप्त
हैं.(१६.५) हे
पार्थ, इस लोक
में – दैवी और
आसुरी – दो
प्रकार की
मनुष्य हैं,
दैवी प्रकृति
वालों क वर्णन
मैं ने
विस्तार्पूर्वक
किया, अब तुम आसुरी
प्रकृति
वालों के बारे
में
सुनॊं.(१६.६) आसुरी
स्वभाव वाले
मनुष्य “क्या
करना चाहिये तथा
क्या नहीं करना
चाहिये” इन
दोनों को नहीं
जानते हैं,
उनमें न तो
बाहर-भीतर की
शुद्धि हैं, न
सदाचार और न सत्यभाषण
ही. (१६.७) वे
कहते हैं कि
संसार असत्य,
आश्रयरहित,
बिना ईश्वर के
और बिना किसी
क्रम से
अपने-आप केवल
स्त्री-पुरुष
के कामुक
संयोग से ही
उत्पन्न है.
इसके सिवा और
कोई भी दूसरा
कारण नहीं
है.(१६.८) ऎसे
(मिथ्या,
नास्तिक)
दृष्टिकोण से
जिनकी बुद्धि
नष्ट हो गयी
है, ऎसे मन्द
बुद्धियुक्त,
घोर कर्म करने
वाले, अपकारी
मनुष्यों का
जन्म जगत का
नाश करने के
लिये ही होता
है.(१६.९) वे
दम्भ, मान और
मद में चूर
होकर, कभी
पूरी न होने वाली
कामनाओं का
आश्रय लेकर,
अज्ञानवश
मिथ्या सिद्धान्तों
को
ग्रहण्करके,
तथा अपवित्र
आचरण धारण्कर
संसार में
रहते
हैं.(१६.१०) जीवनभर
अपर चिन्ताओं
से ग्रस्त और
विषयभोग को ही
परम लक्ष्य
मान ने वाले
ये लोग ऎसा
समझते हैं कि
विषयभोग ही सब
कुछ है,(१६.११) आशा
की सैकडों
बोडियों से
बंधे हुए, काम
और क्रोध के
वशीभूत होकर,
विष्यों के
भोग के लिये
अन्याय्पूर्वक
धन-संचय करने
की चेष्टा
करते
हैं.(१६.१२) (वे
ऎसा सोचते हैं
कि) मैंने आज
तह प्राप्त
किया है और अब
इस मनोरथ को
पूरा करूंगा,
मेरे पास इतना
धन्है. तथा
इससे भी
अद्जिक धन भविष्य
में
होगा(१६.१३) वह
शत्रु मेरे
द्वारा मारा
गया है और
दूसरे शत्रुओं
को भी मैं
मारूंगा, मैं
सर्वसमर्थ
(ईश्वर) और
भोगने वाला
हूं. मैं
सिद्ध, बलवान
और सुखी हूं
(१६.१४) मैं
बडा धनी और
परिवार वाला
हूं, मेरे
समान दूसरा
कौन है? मैं
यज्ञ करूंगा,
दान दूंगा और
मौज करूंगा.
इस प्रकार वे
अज्ञान से
मोहित रहते हैं.(१६.१५) अनेक
प्रकार से
भ्रमित चित्त
वाके, मोह जाल
में फंसे,
विषयभोगं में
अत्यन्त
आस्क्त, ये
लोग घोर
अपवित्र नरक
में गिरते
हैं.(१६.१६) अपने
आपको श्रेष्ठ
मानने वाले,
घमंडी, धन और मान
के मद में चूर
रहने वाले मनुष्य
अविधिपूर्वक
केवल
नाममात्र के
दिखावटी यज्ञ
करते हैं
(१६.१७) अहंकार,
बल, घमंड और
क्रोध के
परिभूत,
दूसरों की
निन्दा करने
वाले ये लोग
अपने और
दूसरों के शरीर
में स्थित मुझ
परमात्मा से
द्वेष करते हैं(१६.१८) ऎसे
द्वेष करने
वाले, क्रूर
और अपवित्र
नराधमों को मैं
संसार में बार
बार आसुरी
योनियों में
डालता हूं
(१६.१९) हे
अर्जुन, वे
मूढ मनुष्य
मुझे प्राप्त
न करके
जन्म-जन्म में
आसुरी योनि को
प्राप्त करते
हैं फिर घोर
नरक में जाते
हैं (१६.२०) **काम,
क्रोध और लोभ
जीव को नरक की
ओर ले जाने
वाले तीन
द्वार हैं,
इसलिए इन तीनों
का त्याग करना
(सीखना) चाहिए
(१६.२१) हे
अर्जुन, नरक
के इन तीन्बों
द्वारों से
मुक्त
व्यक्ति अपने
कल्याण के
लिये आचरण
करता है, इससे
वह परमगति
अर्थात मुझे
प्राप्त करता
है.(१६.२२) जो
मनुष्य
शास्त्रविधि
को छोडकर अपनी
इच्छा से
मनमाना आचरण
करता है, उसे न
पूर्णत्व कि
सिद्धि मिलती
है, न परन्धाम और न सुख
ही. (१६.२३) **
मनुष्य के
कर्तव्य और
अकर्तव्य के
निर्णय में शा
स्त्र ही
प्रमाण है,
अतः तुम्हे
शास्त्रोक्त
विधान के
अनुसार ही
अपना
कर्तव्यकर्म
करना
चाहिये(१६.२४) CHAPTER 17 १७. श्रद्धात्रयविभागयोगः अर्जुन
बोले – हे
कृष्ण, जो
व्यक्ति
शास्त्रविधि
छोडकर केवल
श्रद्धापूर्वक
ही पूजा करते
हैं, उनकी नि ष्ठा
कैसी है, क्या
वह सात्विक
है, अथवा
राजसिक
या तामसिक है
?(१७.१) श्री
भगवान बोले –
मनुष्यों की
स्वाभाविक
श्रद्धा(अर्थात
निष्ठा) तीन
प्रकार की-
सात्विक,
राजसिक और
तामसिक- होती
है, उसे सुनो
(१७.२) ** हे
अर्जुन, सभी
मनुष्यों की
श्रद्धा उनके
स्वभाव (तथा
संस्कार) के
अनुरूप होती
है. मनुष्य अपने
स्वभाव से
जाना जाता है,
मनुष्य जैसा
भी चाहे वैसा
ही बन सकता है
(यदि यह
श्रद्धापूर्वक
अपने इच्छित
ध्येय का
चिन्तन करता
रहे) (१७.३) सात्विक
व्यक्ति
देवी-देवताओं
को पूजते हैं, राजस
मनुष्य यक्ष
और राक्षसों
को, तथा तामस
व्यक्ति
भूतों और
प्रेतों की
पूजा करते हैं
(१७.४) जो
लोग
शास्त्रविधि
से रहित घोर
तप करते हैं,
जो दम्भ और
अभिमान से
युक्त हैं, जो
शरीर में
स्थित
पञ्चभूतों को
और सबके
अन्तःकरण मे
रहने वाला मुझ
परमात्मा को
भी कष्ट देने
वाले अविवेकी
लोग हैं,
उन्हें तुम
आसुरी स्वभाव
वाले जानो.(१७.५-६) सब
का भोजन भी
तीन प्र्कार
का होता है और
वैसे ही यज्ञ,
तप और दान भी
तीन प्रकार के
होते हैं,
उनके भेद तुम
मुझसे सुनों (१७.७) आयुः,
बुद्धि, बल,
स्वास्थ, सुख
और प्रसन्नता
बढाने वाले,
रसयुक्त,
चिकने और
स्थिर रहने
वाले, तथा
शरीर को शक्ति
देने वले आहार
सात्विक व्यक्ति
को प्रिय होते
हैं (१७.७) दुःळ,
चिन्ता और
रोगों को
उत्पन्न करने
वाले, बहुत
कडवे, खट्टे,
नमकीन, गरम,
तीखे, ॠखे और
दाहकारक आहार,
राजसिक
व्यक्ति को
प्रिय होते
हैं (१७.९) अधपका,
रसरहित,
दुर्गन्धयुक्त
बासी, जूठा और (मांस,
मदिरा आदि)
अपवित्र आहार
तामसिक
मनुष्य को
प्रिय होता
है.(१७.१०) यज्ञ
करना हमारा
कर्त्व्य है-
ऎसा सोचकर,
बिना फल की
आशा करने वालों
द्वारा किया
गया यज्ञ
सात्विक है
(१७.११) हे
अर्जुन, जो
यज्ञ फल की
इच्छा से अथवा
दिखाने के लिए
किया जाता है,
उसे तुम
राजसिक
समझो.(११.१२) बिना
शास्त्रविधि,
अन्नदान,
मन्त्र,
दक्षिणा और
श्रद्धा के
किये जाने
वाले यज्ञ को
तामसिक यज्ञ
कहते
हैं.(१७.१३) देवी
देवता,
पुरोहित, गुरु
और
ज्ञानीजनों
का पूजन,
पवित्रता,
सदाचार,
ब्रह्मचर्य
और अहिंसा इन्हे
शारीरिक तप
कहा जाता है
(१७.१४) वाणी
वही अच्छी है
जो दूसरे के
मन को अशान्ति
पैदा न करें.
जो सत्य,
प्रिय और
हितकारक हो,
तथा जिसका
उपयोग शास्त्रों
के पढनेमें
हो, ऎसी अच्छी
वाणी को वाणी
का तप कहते
हैं.(१७.१५) मन
की प्रसन्नता,
सरलता, चित्त
की स्थिरता,
मन का
नियंत्रण और
शुद्ध विचार,
इन्हे मानसिक
तप कहते हैं
(१७.१६) बिना
फल की इच्छा
से, परम
श्रद्धापूर्वक
किये गये
उपरोक्त
तीनों प्रकार –
मन, वाणी और शरीर
– के तप को
सात्विक तप
कहते हैं
(१७.१७) जो
तप दूसरॊं से
सत्कार, मान
और पूजा
करवाने के
लिये अथवा
केवल दिखाने
के लिये ही
किया जाय, ऎसे
अनिश्चित और
क्षणिक फल
वाले तप को
राजसिक तप
कहते
हैं(१७.१८) जो
तप
मूढतापूर्वक
ह्ठ से
अपने शरीरको
पीडा देकर,
अथवा दूसरों को
क्षति
पहुंचाने के
लिये किया
जाता है, उसे तामसिक
तप कहा गया
है.(१७,१९) दान
देना हमारा
कर्तव्य है-
ऎसे बाव से जो
दान देश, काल.
और पात्र के
अनुसार बिना
प्रत्युपकार
की इच्छा से
दिया जाता है,
वह सात्विक
माना गया है.
(१७.२०) जो
दान
फल-प्राप्ति,
प्रत्य्पकार
की इच्छा से,
अथवा बिना
श्रद्धा से
दिया जाता है, वह
दान राजसिक
कहा गया
है.(१७.२१) जओ
दान देश, काल
और पात्र का
विचार किये
विना अथवा
पात्र का
अनादर या
तिरस्कार
करके दिया जाता
है, वह दान
तामसिक कहा
गया है.(१७.२२) ब्रह्म
के –जिनके
द्वारा
सृष्टि के आदि
में वेदों, ब्रह्म्णों
और यज्ञों की
रचना हुई है –
ओम,तत और सत
तीन नाम कहे
गये हैं (१७.२३) इसलिए,
परब्रह्म
परमात्मा को
जानने वालों
द्वारा
(शास्त्रविधि
से) किये हुये
यज्ञ, दान, तप, आदि
क्रियाओं का
प्रारम्भ सदा
परमात्मा के ओंकार
नाम के
उच्छारण से ही
होता है. (१७.२४) फल
की इच्छा नहीं
रखने वाले
मुमुक्षुओं
द्वारा नाना
प्रकार के
यज्ञ, तप, दान
आदि क्रियाएं
’तत्’ शब्द का
उच्छारण करके
की जाती है
(१७.२५) हे
पार्थ, ’सत्’
शब्द का
प्रयोग
परमात्मा के
अस्तित्व,
अच्छे भाव,
तथा शुभ कर्म
के लिए भी होता
है.(१७.२६) यज्ञ
तप और दान में
श्रद्धा तथा
परमात्मा के
लिए किये जाने
वाले (निष्काम)
कर्म को भै
’सत्’ कहते हैं
(१७.२७) हे
पार्थ, यज्ञ,
दान, तप आदि जो
कुच्छ भी कर्म बिना
श्रद्धा के
किया जाता है,
वह ’असत्’ कहा
जाता है.
जिसका न इस्
लोक् में और न
परलोक में ही
कोई प्रयोजन
है.(१७.२८) CHAPTER 18 अर्जुन
बोले- हे
महाबाहो, हे
अन्तर्यामिन,
हे वासुदेव,
मैं संन्यास और
त्याग को तथा
इनके भेद को
अच्छी तरह
जानना चाहता
हूं (१८.१) ** श्रीभगवान
बोले – सकाम
कर्म के
परित्याग को
ज्ञानीजन
’संन्यास’
कहते हैं, तथा
विवेकी
मनुष्य सभी
कर्मों के फल
(में आसक्ति)
के त्याग को
’त्याग ’कहते
हैं.(१८.२) कुछ
महात्मा लोग
कहते हैं कि
सभी कर्म
दोषयुक्त
होने के कारण
त्याज्य है और
दूसरे लोगों
का कहना है कि
यज्ञ, दान और
तप त्याज्य
नहीं हैं (१८.३) हे
अर्जुन, त्याग
के विषय में
अब तुम मेरा
निर्णय सुनो,
हे
पुरुषश्रेष्ठ,
त्याग भी तीन
प्रकार का कहा
गया है.(१८.४) यज्ञ,
दान और तप का
त्याग नही
करना चाहिये,
क्योंकि यज्ञ,
दान और तप ये
साधकों के
अन्तःकरण को
पवित्र करते
हैं.(१८.५) हे
पार्थ, इन
कर्मों को भी
फल की आसक्ति
त्यागकर ही
करना चाहिये,
ऎसा मेरा घृढ
उत्तम मत है
(१८.६) हे
अर्जुन,
कर्तव्यकर्म
का त्याग उचित
नहीं है.
भ्रमवश
उअस्का त्याग
करना तामसिक
त्याग कहा गया
है (१८.७) सभी
कर्म दुःखरूप
है – ऎसा समझकर
यदि कोई
शारीरिक कष्ट
अथवा कठिनाई के करता भय
से अपने
कर्तव्यकर्म
को त्याग दे.
तो वह ऎसा
राजसिक त्याग
करके त्याग के
फल को प्राप्त
नहीं है. (१८.८) ’कर्म
करना
कर्तव्यहै”
ऎसा समझ कर, हे
अर्जुन, जो
नित्य कर्म –
फल की आसक्ति
त्यागकर किया
जात्ता है, वही
सात्विक
त्याग माना
गया है.(१८.९) जो
मनुष्य अशुभ
कर्म से द्वेष
नही करता, तथा
शुभ कर्म में
आसक्त नहीं
होता, वही
सतोगुण से
संपन्न, संशयरहित,
बुद्धिमान और
त्यागी समझा
जाता है, (१८.१०) ** मनुष्य
के लिये
सम्पूर्णरूप
से सभी कर्मों
का त्याग करना
संभव नहीं है,
अतः जो सभी
कर्मों के फल
में आसक्ति का
त्याग करता
है, वही
त्यागी कहा
जाता है (१८.११) कर्मों
के तीन प्रकार
का फल –अच्छा,
बुरा और
मिश्रित -
मरने के बाद
कर्मफल में
आसक्ति का
त्याग न करने
वाले को मिलता
है, परन्तु
त्यागी को कभी
नहीं निलता
(१८.१२) **हे
महाबहो,
सांख्य
सिद्धान्त के
अनुसार सभी कर्मों
का सिद्धि के
लिये ये पांच
कारण – स्थूल
शरीर, प्रकृति
के गुणरूपी
कर्ता, पंच प्राण,
इन्द्रियं,
तथा
इन्द्रियों
का अधीष्ठाता
देवगण –बताये
गये हैं, जिसे
तुम मुझसे
भलेभांति
जानो.(१८.१३-१४) मनुष्य
अपने मन,
या वाणी और
शरीर के द्वारा
जो कुछ भी
उचित अनुचित
कर्म करता है,
उसके ये पांच
करण है.(१८.१५) अतः
जो केवल अपने
आपको (अर्थात
अपने शरीर या
आत्मा को) ही
कर्ता मान
बैठता है, यह
अज्ञानी मनुष्य
अशुद्ध
बुद्धि के
कारण नहीं
समझता है.(१८.१६) **
जिस मनुष्य के
अन्तः करणमें
’मैं कर्ता
हूं’ का भाव
नहीं है, तथा
जिसकी बुद्धि
(कर्मफल की आसक्ति
से) लिप्त
नहीं है, वह इन
सारे
प्राणियों को
मारकर भी
वास्तव में न
किसी को मारता
है और न पाप से
बंधता
है.(१८.१७) कार्य
का ज्ञान,
ज्ञान का विषय
(ज्ञेय) और
ज्ञाता- ये
तीन कर्म के
प्रेरणा हैं,
तथा करण अर्थात
इन्द्रियां,
क्रिया और
कर्ता अर्थात
गुण- ये तीन
कर्म के अंग
है (१८.१८) संख्यामत
के अनुसार
ज्ञान, कर्म
और कर्ता भी गुणों
के भेद से तीन
प्रकार माने
जाते हैं, उनको
भी तुम मुझसे
भलेभांति
सुनो.(१८.१९) जिस
ज्ञान के
द्वारा
मनुष्य
विभक्त रूप
में स्थित
समस्त
प्राणियों
में एक ही
अविभक्त और अविनाशी
परमात्मा को
समभाब से
स्थित देखता
है, उस ज्ञान
को तुम
सात्विक जानो.(१८.२०) जिस
ज्ञान के
द्वारा
मनुष्य
विभिन्न
प्राणियों के
अस्तित्व में
अनेकता का
अनुभव करता
है. उस ज्ञान
को तुम राजसिक
समझो (१८.२१) और
जिस
मूर्खतापूर्ण,
तुच्छ और
बेकार ज्ञान के
द्वारा
मनुष्य शरीर
को ही सब कुछ
मानकर उसमें
आसक्त हो जाता
है, यह ज्ञान
तामसिक है.(१८.२२) जो
कर्म(शास्त्रविधि
से) नियत और
कर्मफल की इच्छा
और आसक्ति से
रहित है, तथा
बिना
राग-द्वॆष से
किया गया है,
वह (कर्म)
सात्विक कहा
जाता है (१८.२३) जो
कर्म फल की
कामना वाले,
अहंकारी
मनुष्य द्वारा
बहुत परिश्रम
से किया जाता
है, वह राजसिक
कहा जाता है
(१८.२४) जो
कर्म परिणाम,
अपनी हानि,
परपीडा और
अपना सामर्थ्य
को अ
विचारकर केवल
भ्रमवश किया
जाता है, वह
कर्म तामसिक
कहलाता
है.(१८.२५) जो
कर्ता आसक्ति
और अहंकार से
रहित, तथा धैर्य
और उत्साह से
युक्त एवं
कार्य की सफलता
और असफलता में
निर्विकार
रहता है, वह
कर्ता सात्विक
कहा जाता
है.(१८.२६) राग-द्वेष
से युक्त,
कर्मफल का
इच्छुक्त,
लोभी, तथा
दूसरे को कष्ट
देने वाला,
अपवित्र
विचार वाला और
हर्ष-शोक से
युक्त कर्ता
राजसिक कहा जाताहै.(१८.२७) अयुक्त,
असभ्य, हठी,
धूर्त,
द्वेषी, आलसी
उदास और
दिर्घसूत्री
कर्ता तामसिक
कहा जाता
है.(१८.२८) हे
अर्जुन, अब
तुम मुझ से
गुणों के
अनुसार बुद्धि
के अनुसार के
और संकल्प के
भी तीन भेद
पूर्णरूप से
अलग-अलग
सुनो(१८.२९) जो
बुद्धि
प्रवृत्ति और
निवृत्ति को,
कर्तव्य और
अकर्तव्य को,
भय और अभय को,
तथा मुक्ति और
बंधन को
यथार्थ रूप से
जानती है, वह
बुद्धि
सात्विक
है.(१८.३०) हे
पार्थ, जिस
बुद्धि के
द्वारा
मनुष्य धर्म और
अधर्म को, तथा
कर्तव्य को
ठीक तरह से
नहीं जानता
है, वह बुद्धि
राजसिक
है.(१८.३१) हे
अर्जुन, जो
बुद्धि
अज्ञान के
कारण अधर्म को
ही धर्म मान
लेती है, इसी
तरह सभी
चीजोंको
उल्टा समझ
लेती है, वह बुद्धि
तामसिक है
(१८.३२) जिस
संकल्प के
द्वारा केवल
परमात्मा को
ही जानने के
ध्येय से
मनुष्य मन,
प्राण और
इन्द्रियों
को धारण करता
है, वह संकल्प
सात्विक
है.(१८.३३) हे
पृथानन्दन, फल
की इच्छा वाला
मनुष्य जिस संकल्प
के द्वारा
धर्म, अर्थ, और
काम को
अत्यन्त
आसक्ति
पूर्वक धारण
करता है, वह
संकल्प
राजसिक है (१८.३४) हे
पार्थ,
बुद्धिहीन
मनुष्य जिस
धारण के द्वारा
निद्रा, भय,
चिन्ता, दुःख
और लापरवाही
को नहीं छोडता
है, वह संकल्प
तामसिक कहा
जाता है(१८.३५) हे
भरतश्रेष्ठ,
अब तुम तीन
प्रकार के सुख
को भी सुनो,
मनुष्य को
आध्यात्मिक
साधन से
प्राप्त सुख
से सभी दुःख
का अन्त हो
जाता है (१८.३६) हे
भरतश्रेष्ठ,
अब तुम तीन
प्रकार के सुख
को भी सुनो,
मनुष्य को
आध्यात्मिक
साधन से
प्राप्त सुख
से सभी दुःख
का अन्त हो
जाता है (१८.३7) इन्द्रियों
के भॊग से
उत्पन्न
प्रेयस सुख को
– जो भोग के समय
तो अमृत के
समान लगता है,
परन्तु जिसका
परिणाम विष की
तरह होता है-
राजसिक सुख कहा
गया है.(१८.३८) निद्रा,
आलस्य और
लापरवाही से
उत्पन्न सुख
जो भोगकाल में
तथा परिणाम
में भी मनुष्य
को भ्रमित
करने वाला
होता है, उसे
तामसिक सुख
कहा गया
है.(१८.३९) पृथ्वी
पर अथवा
स्वर्ग के
देवताओं में
कोई भी प्राणी
प्रकृति के इन
तीन गुणों से
मुक्त होकर
नहीं रह सकता
है (१८.४०) हे
अर्जुन, चार
वर्ण –
ब्राह्मण,
क्षत्रिय,
वैश्य और
शूद्र – में
कर्म का विभजन
भी मनुष्यो
क्र स्वभाव
जनित गुणों के
अनुसार किया
गया है(१८.४१) शम,
दम, तप,
शौध,सहिष्णुता,
सत्यवादिता,
ज्ञान, विवेक
और स्तिकभाव –
ये ब्राहमण के
स्वाभाविक
कर्म है (१८.४२) शौर्य,
तेज, दृढ
संकल्प,
दक्षता, युद्ध
से न भागना,
दान देना और
शासन करना – ये
क्षत्रिय के
स्वाभाविक
कर्म है (१८.४३) खेती,
गौपालन, तथा
व्यापार – ये
सब वैश्य के
स्वाभाविक
कर्म है, तथा
शूद्र का
स्वाभाविक
कर्म सेवा
करना है. (१८.४४) मनुष्य
अपने-अपने
स्वाभाविक
कर्म करते हुए
परम सिद्धि को
कैसे प्राप्त
कर सकता है,
उसे तुम मुझसे
सुनो (१८.४५) **जिस
परब्रह्म
परमात्मा से
समस्त
प्राणियों की उत्पत्ति
होती है और
जिससे यह सारा
जगत व्याप्त
है, उसका अपने
कर्म के
द्वारा पूजन
करके मनुष्य
सिद्धि को
प्राप्त होता
है(१८.४६) अपना
गुणरहित (सह्ज
और स्वाभाविक)
कार्य आत्मविकास
के लिए दूसरे
गुणयुक्त
अस्वाभाविक
कार्य से
श्रेयस्कर है,
क्यॊंकि
(निष्काम भाव
से) अपना
स्वाभाविक
कार्य करने से
मनुष्यको पाप
नहीं लगता है
(१८.४७) हे
अर्जुन, अपने
दोषयुक्त
(सह्ज और
स्वाभाविक)
कर्म का भी
त्याग नहीं
करना चाहिए,
क्योंकि जैसे
धुएं से अग्नि
लिप्त होती
है, वैसे ही
सभी कर्म
किसी-न-किसी
दोष से युक्त
होते
हैं.(१८.४८) असक्ति
रहित, इच्छा
रहित और
जितेन्द्रिय
मनुष्य
संन्यास ( अर्थात
सकाम कर्म के
परित्याग) के
द्वारा (कर्म
के बंधन से
मुक्त होकर)
परम
नैष्कर्म्य-सिद्धि
प्राप्त करता
है.(१८.४९) हे
कौन्तेय,
नैष्कर्म्य-सिद्धि
को प्राप्त हुआ
साधक किस
प्रकार
तत्वज्ञान की
परा निष्ठा –
परमपुरुष – को
प्राप्त होता
है, उसे भी
मुझसे
संक्षेप में सुनो.(१८.५०) विशुद्ध
बुद्धि से
युक्त, मन के
दृढ संकल्प द्वारा
आत्मसंयम कर,
शब्दादि
विषयों को
त्याग कर,
राग-द्वेष से
रहित होकर,
एकान्त में
रहकर, हल्का,
सात्विक और
नियमित भोजन
करके, अपने
वाणी, इन्द्रियों
और मन को संयत
कर, परमात्मा
के ध्यान में
सदैव लगा
हुआ,दृढ
वैराग्य को
प्राप्त.
अहंकार,बल,
दर्प, काम, क्रोध
और स्वामित्व
को त्यागकर
ममत्व भाव से
फ़्रहित और
शान्त मनुष्य
परब्रह्म
परमातमा की प्राप्ति
के योग्य बन
जाता है
(१८.५१-५३) उपरोक्त
ब्रह्माभूत
अवस्था
प्राप्त,
प्रसन्न
चित्त वाला
साधक न तो
किसी के लिए
शोक करता है,
नकिसी वस्तु
की इच्छा ही
करता है, ऎसा
समस्त प्राणियों
में समभाव
वाला साधक
मेरी पराभक्ति
को प्राप्त
करता है (१८.५४) **श्रद्धा
और भक्ति
(अर्थात
पराभक्ति,
ज्ञान) के
द्वारा ही मै<
तत्व से जाना
जा सकता हूं
कि मैं कौन
हूं और क्या
हूं. मुझे
तत्व से जानने
के पश्चात
तत्काल ही
मनुष्य मुझे
प्रवेश
कर(मत्स्वरूप
बन) जाता
है.(१८.५५) मेरा
आश्रय लेने
वाला (ज्ञानी
भक्त) सदा सब
कर्म करता हुआ
भी मेरी कृपा
से शाश्वत
अविनाशी पद
प्राप्त करता
है. (१८.५६) समस्त
कर्मों को
श्रद्धा और भक्ति
पूर्वक
मुझे अर्पण
कर, मुझे अपना
परम लक्ष्य
मानकर मुझ पर
भरोसा रख, तथा
निश्काम
कर्मयोग का
आश्रय लेकर
निरन्तर मुझ
में चित लगा
(१८.५७) मुझ
में चित्त लगा
कर तुम मेरी
कृपा से
सम्पूर्ण
विघ्नों को
पार कर जाओगे
और यदि तुम
अहंकारवश
मेरे इस उपदेश
को नहीं सुनोगे,
तो तुम्हारा
पतन
होगा.(१८.५८) यदि
अहंकारवश तुम
ऎसा सोच रहे
हो कि मैं यह
युद्ध नहीं
करूगा, तो
तुम्हारा ऎसा
सोचना मिथ्या
है, क्योंकि
तुम्हारा
स्वभाव
तुम्हें बलात युद्ध
में लगा देगा.
(१८.५९) हे
अर्जुन, तुम
अपने
संस्काररूपी
स्वाभाविक कर्म
(के बंधनों) से
बन्धे हो. अतः
भ्रमवश जिस
काम को तुम
नही करना चाहते
हो, उसे भी तुम
विवश होकर
करोगे (१८.६०) ** हे
अर्जुन, ईश्वर
(अर्थात कृष्ण
ही सभी प्राणियों
के अन्तःकरण
में स्थित
होकर अपनी
माया के
द्वारा
प्राणियों को
यन्त्र पर
आरूढ कठपुतली
की तरह घुमाते
रहता है(१८.६१) हे
भारत,
तुम्पराभक्ति
भाव से उस
ईश्वर की ही
शरण जाऒ, उसकी
कृपा से तुम
परम शान्ति और
शाश्वत परमधाम
को प्राप्त
करोगे.(१८.६२) मैंने
गुह्य से भी
गुह्यतर
ज्ञान तुमसे
कहा है, अब इस
पर अच्छी तरह
से विचार करने
के बाद तुम्हारी
जैसि इच्छा हो
वैसा करो
(१८.६३) मेरे
इस समस्त
गुह्यों में
गुह्यतम परम
उपदेश को तुम
एक बार फिर
सुनों, तुम
मेरे अत्यन्त
प्रिय हो,
इसलिए मैं
तुम्हारे हित
की बात कहूंगा
(१८.६४) तुम
मुझ में अपना
मन लगाओ, मेरे
भक्त बनों,
मेरी पूज करो,
मुझे नमस्कार
करो, ऎसा करने
से तुम मुझे
अवश्य ही
प्राप्त
करोगे, मैं
तुम्हे यह
सत्य वचन देता
हूं
क्योंकि तुम
मेरे प्रिय
मित्र
हो(१८.६५) ** सम्पूर्ण
कर्मों (में
अहंकार और
आसक्ति) का परित्याग
करके तुम केवल
मेरा (विधान
का) ही आश्रय
लो, शोक मत करो,
मैं तुम्हे
समस्त पापों(
अर्थात कर्म
के बंधनों से
मुक्त कर
दूंगा (१८.६६) (गीता
के)इस गुह्यतम
ज्ञान को
तपरहित और
भक्तिरहित
व्यक्तियों
को, अथवा जो
सुना नहीं
चाहतए हों,
अथवा जिन्हें
मुझ में
श्रद्धा नहो,
उन लोगों से
कभी नहीं कहना
चाहिए (१८.६७) ** जो
व्यक्ति इस
परम गुह्य
ज्ञान का मेरे
भक्तजनों के
बीच
प्रचार और
प्रसार करेगा,
वह मेरी यह
सर्वोत्तम
परा भक्ति
करके
निःसंदेह
मुझे प्राप्य
होगा. (१८.६८) उससे
बढकर मेरा
प्रिय कार्य
करने वाला कोई
मनुष्य नहीं
होगा, और न
मेरा उससे
ज्यादा प्रिय इस
पृथिवी पर कोई
दूसरा होगा
(१८.६९) जो
व्यक्ति हम
दोनों के इस
धर्ममय संवाद
का अध्ययन
करेगा, उसके
द्वारा मैं
ज्ञानयज्ञ से
पूजित होऊंगा –
यह मेरा वचन
है (१८.७०) तथा
जो श्रद्धा
पूर्वक - बिना
आलोचना किये –
इसे केवल
सुनेगा, वह भी
सम्पूर्ण
पापों से मुक्त
होकर
पुण्यवान
लोगों के शुभ
लोकों को प्राप्त
करेगा (१८.७१) हे
पार्थ, क्या
तुमने
एकाग्रचित्त
होकर इसे सुना?
और हे धनंजय,
क्या
तुम्हारा
अज्ञान जनित
भ्रम
पूर्ण्रूप से
नष्ट
हुआ?(१८.७२) अर्जुन
बोले – हे
अच्युत, आपकी
कृपा से मेरा
भ्रम दूर हो
गया है, और
मुझे ज्ञान
प्राप्त हो
गया है, अब मैं
संशयरहित हो
गया हूं और
मैं आपकी
आज्ञा का पालन
करूंगा (१८.७३) संजय
बोले – इस
प्रकार मैने
भगवन श्री
कृष्ण और
महात्मा
अर्जुन का
अद्भुत और
रोमांचकारी
संवाद
सुना.(१८.७४) व्यास्जी
की कृपा से
(दिव्य दृष्टि
पाकर) मैने इस
परम गुह्य
ज्ञान को
(अर्जुन से
कहते हुए) साक्षात
योगेश्वर
श्रीकृष्ण
भगवान से सुना
है (१८.७५) हे
राजन, भगवान
श्रीकृष्ण और
अर्जुन के इस
पवित्र
(अर्थात
कल्याणकारी)
और अद्भुत
सम्वाद को बार-बार
स्मरण करके
मैं बारम्बार
हर्षित होता
हूं (१८,७६) हे
राजन, श्रिहरि
के अत्यन्त
अद्भुत रूप को
भी बार-बार
स्मरण करके
मुझे अत्यन्त
आश्चर्य होताहै
और मैं
बाअरम्बार
हर्षित होता
हूं (१८.७७) **जहां
भी , जिस देश या
घर में (धर्म
अर्थात
शास्त्र्धारी)
योगेश्वर श्रीकृष्ण
तथा (दर्म
रूपी)
शस्त्रधारी
अर्जुन दोनों
होंगे, वहीं
वैभव, विजय,
गौरव (विभूति)
और नियम आदि
सदा विराजमान
रहेंगी. ऎसा
मेर अटल विश्वास
है.(१८.७८) THUS ENDS THE
BHAGAVAD-GITA |